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दूसरा अधिकार ][ ३५
वहाँ एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवोंको तो अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है और संज्ञी
पंचेन्द्रियोंके दोनों हैं। यह श्रुतज्ञान है सो अनेक प्रकारसे पराधीन ऐसे मतिज्ञानके भी आधीन
है तथा अन्य अनेक कारणोंके आधीन है; इसलिए महा पराधीन जानना।
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानकी प्रवृत्ति
अब, अपनी मर्यादाके अनुसार क्षेत्र-कालका प्रमाण लेकर रूपी पदार्थोंको स्पष्टरूपसे
जिसके द्वारा जाना जाय वह अवधिज्ञान है। वह देव, नारकियोंमें तो सबको पाया जाता
है और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्योंके भी किसीको पाया जाता है। असंज्ञी-पर्यंत
जीवोंके यह होता ही नहीं है। सो यह भी शरीरादिक पुद्गलोंके आधीन है। अवधिके
तीन भेद हैं — १. देशावधि, २. परमावधि, ३. सर्वावधि। इनमें थोड़े क्षेत्र-कालकी मर्यादा
लेकर किंचित्मात्र रूपी पदार्थोंको जाननेवाला देशावधि है, सो ही किसी जीवके होता है।
तथा परमावधि, सर्वावधि और मनःपर्यय — ये ज्ञान मोक्षमार्गमें प्रगट होते हैं; केवलज्ञान
मोक्षरूप है, इसलिये इस अनादि संसार-अवस्थामें इनका सद्भाव ही नहीं है।
इस प्रकार तो ज्ञानकी प्रवृत्ति पायी जाती है।
चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवलदर्शनकी प्रवृत्ति
अब, इन्द्रिय तथा मनको स्पर्शादिक विषयोंका सम्बन्ध होनेसे प्रथम कालमें मतिज्ञानसे
पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास होता है उसका नाम चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन
है। वहाँ नेत्र-इन्द्रिय द्वारा दर्शन होनेका नाम तो चक्षुदर्शन है; वह तो चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
जीवोंको ही होता है। तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र — इन चार इन्द्रियों और मन द्वारा
जो दर्शन होता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है; वह यथायोग्य एकेन्द्रियादि जीवोंको होता है।
अब, अवधिके विषयोंका सम्बन्ध होने पर अवधिज्ञानके पूर्व जो सत्तामात्र अवलोकनरूप
प्रतिभास होता है उसका नाम अवधिदर्शन है। यह जिनके अवधिज्ञान सम्भव है उन्हींको
होता है।
यह चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान व अवधिज्ञानवत् पराधीन जानना।
तथा केवलदर्शन मोक्षस्वरूप है उसका यहाँ सद्भाव ही नहीं है।
इस प्रकार दर्शनका सद्भाव पाया जाता है।
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