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दूसरा अधिकार ][ ४१
इन्हें ईषत् कषाय कहते हैं। यहाँ नो शब्द ईषत्वाचक जानना। इनका उदय उन क्रोधादिकोंके
साथ यथासम्भव होता है।
इस प्रकार मोहके उदयसे मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं, सो ये ही संसारके मूल
कारण हैं। इन्हींसे वर्तमान कालमें जीव दुःखी हैं, और आगामी कर्मबन्धके भी कारण ये
ही हैं। तथा इन्हींका नाम राग-द्वेष-मोह है। वहाँ मिथ्यात्वका नाम मोह है; क्योंकि वहाँ
सावधानीका अभाव है। तथा माया, लोभ कषाय एवं हास्य, रति और तीन वेदोंका नाम
राग है; क्योंकि वहाँ इष्टबुद्धिसे अनुराग पाया जाता है। तथा क्रोध, मान, कषाय और
अरति, शोक, भय जुगुप्साओंका नाम द्वेष है; क्योंकि वहाँ अनिष्टबुद्धिसे द्वेष पाया जाता
है। तथा सामान्यतः सभीका नाम मोह है; क्योंकि इनमें सर्वत्र असावधानी पाई जाती है।
अंतरायकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा अन्तरायके उदयसे जीव चाहे सो नहीं होता। दान देना चाहे सो नहीं दे सकता,
वस्तुकी प्राप्ति चाहे सो नहीं होती, भोग करना चाहे सो नहीं होता, उपभोग करना चाहे
सो नहीं होता, अपनी ज्ञानादि शक्तिको प्रगट करना चाहे सो प्रगट नहीं हो सकती। इस
प्रकार अन्तरायके उदयसे जो चाहता है सो नहीं होता, तथा उसीके क्षयोपशमसे किंचित्मात्र
चाहा हुआ भी होता है। चाह तो बहुत है, परन्तु किंचित्मात्र दान दे सकता है, लाभ
होता है, ज्ञानादिक शक्ति प्रगट होती है; वहाँ भी अनेक बाह्य कारण चाहिये।
इस प्रकार घातिकर्मोंके उदयसे जीवकी अवस्था होती है।
वेदनीयकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा अघातिकर्मोंमें वेदनीयके उदयसे शरीरमें बाह्य सुख-दुःखके कारण उत्पन्न होते हैं।
शरीरमें आरोग्यपना, शक्तिवानपना इत्यादि तथा क्षुधा, तृषा, रोग, खेद, पीड़ा इत्यादि सुख-
दुःखके कारण होते हैं। बाह्यमें सुहावने ऋतु – पवनादिक, इष्ट स्त्री – पुत्रादिक तथा मित्र –
धनादिक; असुहावने ऋतु – पवनादिक, अनिष्ट स्त्री – पुत्रादिक तथा शत्रु, दारिद्रय, वध-बन्धनादिक
सुख-दुःखको कारण होते हैं।
यह जो बाह्य कारण कहे हैं उनमें कितने कारण तो ऐसे हैं जिनके निमित्तसे शरीरकी
अवस्था सुख-दुःखको कारण होती है, और वे ही सुख-दुःखको कारण होते हैं तथा कितने
कारण ऐसे हैं तो स्वयं ही सुख-दुःखको कारण होते हैं। ऐसे कारणोंका मिलना वेदनीयके
उदयसे होता है। वहाँ सातावेदनीयसे सुखके कारण मिलते हैं और असातावेदनीयसे दुःखके
कारण मिलते हैं।