Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ ऐसा जानना कि वे कारण ही सुख-दुःखको उत्पन्न नहीं करते, आत्मा मोहकर्मके
उदयसे स्वयं सुख-दुःख मानता है। वहाँ वेदनीयकर्मके उदयका और मोहकर्मके उदयका ऐसा
ही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है तब तो सुख माननेरूप
मोहकर्मका उदय होता है, और जब असातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है
तब दुःख माननेरूप मोहकर्मका उदय होता है।
तथा यही कारण किसीको सुखका, किसीको दुःखका कारण होता है। जैसेकिसीको
सातावेदनीयका उदय होने पर मिला हुआ जैसा वस्त्र सुखका कारण होता है, वैसा ही वस्त्र
किसीको असातावेदनीयका उदय होने पर मिला सो दुःखका कारण होता है। इसलिए बाह्य
वस्तु सुख-दुःखका निमित्तमात्र होती है। सुख-दुःख होता है वह मोहके निमित्तसे होता है।
निर्मोही मुनियोंको अनेक ऋद्धि आदि तथा परीषहादि कारण मिलते हैं तथापि सुख-दुःख उत्पन्न
नहीं होता। मोही जीवको कारण मिलने पर अथवा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प
ही से सुख-दुःख हुआ ही करता है। वहाँ भी तीव्र मोहीको जिस कारणके मिलने पर तीव्र
सुख-दुःख होते हैं, वही कारण मिलने पर मंद मोहीको मंद सुख-दुःख होते हैं।
इसलिये सुख-दुःखका मूल बलवान कारण मोहका उदय है। अन्य वस्तुएँ हैं वे बलवान
कारण नहीं हैं; परन्तु अन्य वस्तुओंके और मोही जीवके परिणामोंके निमित्त-नैमित्तिककी मुख्यता
पाई जाती है; उससे मोही जीव अन्य वस्तु ही को सुख-दुःखका कारण मानता है।
इस प्रकार वेदनीयसे सुख-दुःखका कारण उत्पन्न होता है।
आयुकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा आयुकर्मके उदयसे मनुष्यादि पर्यायोंकी स्थिति रहती है। जब तक आयुका उदय
रहता है तब तक अनेक रोगादिक कारण मिलने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं छूटता। तथा
जब आयुका उदय न हो तब अनेक उपाय करने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं रहता, उस
ही काल आत्मा और शरीर पृथक् हो जाते हैं।
इस संसारमें जन्म, जीवन, मरणका कारण आयुकर्म ही है। जब नवीन आयुका उदय
होता है तब नवीन पर्यायमें जन्म होता है। तथा जब तक आयुका उदय रहे तब तक
उस पर्यायरूप प्राणोंके धारणसे जीना होता है। तथा आयुका क्षय हो तब उस पर्यायरूप
प्राण छूटनेसे मरण होता है। सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है; दूसरा कोई उत्पन्न
करनेवाला, क्षय करनेवाला या रक्षा करनेवाला है नहीं
ऐसा निश्चय जानना।