ही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है तब तो सुख माननेरूप
मोहकर्मका उदय होता है, और जब असातावेदनीयका उत्पन्न किया बाह्य कारण मिलता है
तब दुःख माननेरूप मोहकर्मका उदय होता है।
किसीको असातावेदनीयका उदय होने पर मिला सो दुःखका कारण होता है। इसलिए बाह्य
वस्तु सुख-दुःखका निमित्तमात्र होती है। सुख-दुःख होता है वह मोहके निमित्तसे होता है।
निर्मोही मुनियोंको अनेक ऋद्धि आदि तथा परीषहादि कारण मिलते हैं तथापि सुख-दुःख उत्पन्न
नहीं होता। मोही जीवको कारण मिलने पर अथवा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प
ही से सुख-दुःख हुआ ही करता है। वहाँ भी तीव्र मोहीको जिस कारणके मिलने पर तीव्र
सुख-दुःख होते हैं, वही कारण मिलने पर मंद मोहीको मंद सुख-दुःख होते हैं।
पाई जाती है; उससे मोही जीव अन्य वस्तु ही को सुख-दुःखका कारण मानता है।
जब आयुका उदय न हो तब अनेक उपाय करने पर भी शरीरसे सम्बन्ध नहीं रहता, उस
ही काल आत्मा और शरीर पृथक् हो जाते हैं।
उस पर्यायरूप प्राणोंके धारणसे जीना होता है। तथा आयुका क्षय हो तब उस पर्यायरूप
प्राण छूटनेसे मरण होता है। सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है; दूसरा कोई उत्पन्न
करनेवाला, क्षय करनेवाला या रक्षा करनेवाला है नहीं