तक धारण किये रहता है, फि र उसको छोड़कर अन्य शरीर धारण करता है। इसलिये
शरीर-सम्बन्धकी अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीवको
अतीत-अनागतका विचार नहीं है; इसलिए प्राप्त पर्यायमात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय
सम्बन्धी कार्योंमें ही तत्पर हो रहा है।
धारण करता है। इस जातिकर्मके उदयको और मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको निमित्त-
नैमित्तिकपना जानना। जैसा क्षयोपशम हो वैसी जाति प्राप्त करता है।
शरीरमें अंगोपांगादिकके योग्य स्थान प्रमाणसहित होते हैं। इसीसे स्पर्शन, रसना आदि द्रव्य-
इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा हृदयस्थानमें आठ पंखुरियोंके फू ले हुए कमलके आकार द्रव्यमन
होता है। तथा उस शरीरमें ही आकारादिकका विशेष होना, वर्णादिकका विशेष होना और
स्थूल-सूक्ष्मत्वादिका होना इत्यादि कार्य उत्पन्न होते हैं; सो वे शरीररूप परिणमित परमाणु इस
प्रकार परिणमित होते हैं।
जैसे आहारका ग्रहण करे और निहारको निकाले तभी जीना होता है; उसी प्रकार बाह्य पवनको
ग्रहण करे और अभ्यंतर पवनको निकाले तभी जीवितव्य रहता है। इसलिये श्वासोच्छ्वास
जीवितव्यका कारण है। इस शरीरमें जिस प्रकार हाड़-मांसादिक हैं उसी प्रकार पवन जानना।
तथा जैसे हस्तादिकसे कार्य करते हैं वैसे ही पवनसे ही कार्य करते हैं। मुँहमें जो ग्रास
रखा उसे पवनसे निगलते हैं, मलादिक पवनसे बाहर निकालते हैं, वैसे ही अन्य जानना।
तथा नाड़ी, वायुरोग, वायगोला इत्यादिको पवनरूप शरीरके अंग जानना।