Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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दूसरा अधिकार ][ ४३
तथा जैसे कोई नवीन वस्त्र पहिनता है, कुछ काल तक पहिने रहता है, फि र उसको
छोड़कर अन्य वस्त्र पहिनता है; उसी प्रकार जीव नवीन शरीर धारण करता है, कुछ काल
तक धारण किये रहता है, फि र उसको छोड़कर अन्य शरीर धारण करता है। इसलिये
शरीर-सम्बन्धकी अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीवको
अतीत-अनागतका विचार नहीं है; इसलिए प्राप्त पर्यायमात्र ही अपनी स्थिति मानकर पर्याय
सम्बन्धी कार्योंमें ही तत्पर हो रहा है।
इस प्रकार आयुसे पर्यायकी स्थिति जानना।
नामकर्मोदयजन्य अवस्था
तथा नामकर्मसे यह जीव मनुष्यादि गतियोंको प्राप्त होता है; उस पर्यायरूप अपनी
अवस्था होती है। वहाँ त्रस-स्थावरादि विशेष उत्पन्न होते हैं। तथा वहाँ एकेन्द्रियादि जातिको
धारण करता है। इस जातिकर्मके उदयको और मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको निमित्त-
नैमित्तिकपना जानना। जैसा क्षयोपशम हो वैसी जाति प्राप्त करता है।
तथा शरीरोंका सम्बन्ध होता है; वहाँ शरीरके परमाणु और आत्माके प्रदेशोंका एक
बंधान होता है तथा संकोच-विस्ताररूप होकर शरीरप्रमाण आत्मा रहता है। तथा नोकर्मरूप
शरीरमें अंगोपांगादिकके योग्य स्थान प्रमाणसहित होते हैं। इसीसे स्पर्शन, रसना आदि द्रव्य-
इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा हृदयस्थानमें आठ पंखुरियोंके फू ले हुए कमलके आकार द्रव्यमन
होता है। तथा उस शरीरमें ही आकारादिकका विशेष होना, वर्णादिकका विशेष होना और
स्थूल-सूक्ष्मत्वादिका होना इत्यादि कार्य उत्पन्न होते हैं; सो वे शरीररूप परिणमित परमाणु इस
प्रकार परिणमित होते हैं।
तथा श्वासोच्छ्वास और स्वर उत्पन्न होते हैं; वे भी पुद्गलके पिण्ड हैं और शरीरसे
एक बंधानरूप हैं। इनमें भी आत्माके प्रदेश व्याप्त हैं। वहाँ श्वासोच्छ्वास तो पवन है।
जैसे आहारका ग्रहण करे और निहारको निकाले तभी जीना होता है; उसी प्रकार बाह्य पवनको
ग्रहण करे और अभ्यंतर पवनको निकाले तभी जीवितव्य रहता है। इसलिये श्वासोच्छ्वास
जीवितव्यका कारण है। इस शरीरमें जिस प्रकार हाड़-मांसादिक हैं उसी प्रकार पवन जानना।
तथा जैसे हस्तादिकसे कार्य करते हैं वैसे ही पवनसे ही कार्य करते हैं। मुँहमें जो ग्रास
रखा उसे पवनसे निगलते हैं, मलादिक पवनसे बाहर निकालते हैं, वैसे ही अन्य जानना।
तथा नाड़ी, वायुरोग, वायगोला इत्यादिको पवनरूप शरीरके अंग जानना।
स्वर है वह शब्द है। सो जैसे वीणाकी ताँतको हिलाने पर भाषारूप होने योग्य
जो पुद्गलस्कंध हैं वे साक्षर या अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं; उसी प्रकार तालु, होंठ