Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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४४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
इत्यादि अंगोंको हिलाने पर भाषापर्याप्तिमें ग्रहण किये गये जो पुद्गलस्कंध हैं वे साक्षर या
अनक्षर शब्दरूप परिणमित होते हैं।
तथा शुभ-अशुभ गमनादिक होते हैं। यहाँ ऐसा जानना कि जैसे दो पुरुषोंको इकदंडी
बेड़ी है। वहाँ एक पुरुष गमनादिक करना चाहे और दूसरा भी गमनादिक करे तो गमनादिक
हो सकते हैं, दोनोंमेंसे एक बैठा रहे तो गमनादिक नहीं हो सकते, तथा दोनोंमें एक बलवान
हो तो दूसरेको भी घसीट ले जाये। उसी प्रकार आत्माके और शरीरादिकरूप पुद्गलके
एकक्षेत्रावगाहरूप बंधान है; वहाँ आत्मा हलन-चलनादि करना चाहे और पुद्गल उस शक्तिसे
रहित हुआ हलन-चलन न करे अथवा पुद्गलमें तो शक्ति पाई जाती है, परन्तु आत्माकी
इच्छा न हो तो हलन-चलनादि नहीं हो सकते। तथा इनमें पुद्गल बलवान होकर हलन-
चलन करे तो उसके साथ बिना इच्छाके भी आत्मा हलन-चलन करता है। इस प्रकार हलन-
चलनादि क्रिया होती है। तथा इसके अपयश आदि बाह्य निमित्त बनते हैं।
इस प्रकार
ये कार्य उत्पन्न होते हैं, उनसे मोहके अनुसार आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है।
ऐसे नामकर्मके उदयसे स्वयमेव नानाप्रकार रचना होती है, अन्य कोई करनेवाला नहीं
है। तथा तीर्थंकरादि प्रकृति यहाँ है ही नहीं।
गोत्रकर्मोदयजन्य अवस्था
गोत्रकर्मसे उच्च-नीच कुलमें उत्पन्न होना होता है; वहाँ अपनी अधिकता-हीनता प्राप्त
होती है। मोहके उदयसे आत्मा सुखी-दुःखी भी होता है।
इस प्रकार अघातिकर्मोंके निमित्तसे अवस्था होती है।
इस प्रकार इस अनादि संसारमें घाति-अघातिकर्मोंके उदयके अनुसार आत्माके अवस्था
होती है। सो हे भव्य! अपने अंतरंगमें विचारकर देख कि ऐसे ही है कि नहीं। विचार
करने पर ऐसा ही प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा है तो तू यह मान कि
‘‘मेरे अनादि
संसार-रोग पाया जाता है, उसके नाशका मुझे उपाय करना’’ इस विचारसे तेरा कल्याण
होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें संसार-अवस्थाका निरूपक
द्वितीय अधिकार सम्पूर्ण हुआ।।।।