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८० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति
अब, संसारी जीवोंके मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पायी जाती है सो कहते हैं। यहाँ
वर्णन तो श्रद्धानका करना है; परन्तु जानेगा तो श्रद्धान करेगा, इसलिये जाननेकी मुख्यतासे
वर्णन करते हैं।
जीव-अजीवतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान
अनादिकालसे जीव है वह कर्मके निमित्तसे अनेक पर्यायें धारण करता है। वहाँ पूर्व
पर्यायको छोड़ता है, नवीन पर्याय धारण करता है। तथा वह पर्याय एक तो स्वयं आत्मा
और अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर उनसे एकपिण्ड बन्धानरूप है। तथा जीवको उस
पर्यायमें — ‘यह मैं हूँ’ — ऐसी अहंबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसका स्वभाव तो
ज्ञानादिक है और विभाव क्रोधादिक हैं और पुद्गलपरमाणुओंके वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि स्वभाव
हैं — उन सबको अपना स्वरूप मानता है।
‘ये मेरे हैं’ — इस प्रकार उनमें ममत्वबुद्धि होती है। तथा स्वयं जीव है, उसके
ज्ञानादिककी तथा क्रोधादिककी अधिकता-हीनतारूप अवस्था होती है और पुद्गलपरमाणुओंकी
वर्णादि पलटनेरूप अवस्था होती है उन सबको अपनी अवस्था मानता है। ‘यह मेरी अवस्था
है’ — ऐसी ममत्वबुद्धि करता है।
तथा जीव और शरीरके नैमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिये जो क्रिया होती है उसे
अपनी मानता है। अपना दर्शन-ज्ञान स्वभाव है, उसकी प्रवृत्तिको निमित्तमात्र शरीरके अंगरूप
स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रियाँ हैं; यह उन्हें एक मानकर ऐसा मानता है कि — हाथ आदिसे मैंने स्पर्श
किया, जीभसे स्वाद लिया, नासिकासे सूँघा, नेत्रसे देखा, कानोंसे सुना। मनोवर्गणारूप आठ
पंखुड़ियोंके फू ले कमलके आकारका हृदयस्थानमें द्रव्यमन है, वह दृष्टिगम्य नहीं ऐसा है, सो
शरीरका अंग है; उसके निमित्त होने पर स्मरणादिरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। यह द्रव्यमनको
और ज्ञानको एक मानकर ऐसा मानता है कि मैंने मनसे जाना।
तथा अपनेको बोलनेकी इच्छा होती है तब अपने प्रदेशोंको जिस प्रकार बोलना बने
उस प्रकार हिलाता है, तब एकक्षेत्रावगाह सम्बन्धके कारण शरीरके अंग भी हिलते हैं।
उनके निमित्तसे भाषावर्गणारूप पुद्गल वचनरूप परिणमित होते हैं; यह सबको एक मानकर
ऐसा मानता है कि मैं बोलता हूँ।
तथा अपनेको गमनादि क्रियाकी या वस्तु ग्रहणादिककी इच्छा होती है तब अपने
प्रदेशोंको जैसे कार्य बने वैसे हिलाता है। वहाँ एकक्षेत्रावगाहके कारण शरीरके अंग हिलते
हैं तब वह कार्य बनता है; अथवा अपनी इच्छाके बिना शरीर हिलता है तब अपने प्रदेश