निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्बिम्बाकृतावात्मनि ।
बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः ।।५५।।
अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धोदयस्थाननिचयो जीवस्य न समस्तीत्युक्त म् । नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजननिजपरमात्मतत्त्वस्य न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्टद्रव्य-
[श्लोकार्थः] जे प्रीति-अप्रीति रहित शाश्वत पद छे, जे निःशेषपणे अंतर्मुख अने निर्भेदपणे प्रकाशमान एवा सुखनो बनेलो छे, जे नभमंडळ समान आकृतिवाळो (अर्थात् निराकार – अरूपी) छे, चैतन्यामृतना पूरथी भरेलुं जेनुं स्वरूप छे, जे विचारवंत डाह्या पुरुषोने गोचर छेएवा आत्मामां तुं रुचि केम करतो नथी अने दुष्कृतरूप संसारना सुखने केम वांछे छे? ५५.
अन्वयार्थः[जीवस्य] जीवने [न स्थितिबंधस्थानानि] स्थितिबंधस्थानो नथी, [प्रकृतिस्थानानि] प्रकृतिस्थानो नथी, [प्रदेशस्थानानि वा] प्रदेशस्थानो नथी, [न अनुभागस्थानानि] अनुभागस्थानो नथी [वा] के [न उदयस्थानानि] उदयस्थानो नथी.
टीकाःअहीं (आ गाथामां) प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध अने प्रदेशबंधनां स्थानोनो तथा उदयनां स्थानोनो समूह जीवने नथी एम कह्युं छे.
सदा *निरुपराग जेनुं स्वरूप छे एवा निरंजन (निर्दोष) निज परमात्मतत्त्वने
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*निरुपराग = उपराग विनानुं. [उपराग = कोई पदार्थमां, अन्य उपाधिनी समीपताना निमित्ते थतो
उपाधिने अनुरूप विकारी भाव; औपाधिक भाव; विकार; मलिनता.]