Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 56-57 Gatha: 41.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम्
विपदामिदमेवोच्चैरपदं चेतये पदम् ।।५६।।
(वसन्ततिलका)
यः सर्वकर्मविषभूरुहसंभवानि
मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि
भुंक्ते ऽधुना सहजचिन्मयमात्मतत्त्वं
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति संशयः कः
।।५७।।
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा
ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ।।४१।।
न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा
औदयिकभावस्थानानि नोपशमस्वभावस्थानानि वा ।।४१।।

[श्लोकार्थः] जे नित्य-शुद्ध चिदानंदरूपी संपदाओनी उत्कृष्ट खाण छे अने जे विपदाओनुं अत्यंतपणे अपद छे (अर्थात् ज्यां विपदा बिलकुल नथी) एवा आ ज पदने हुं अनुभवुं छुं. ५६.

[श्लोकार्थः] (अशुभ तेम ज शुभ) सर्व कर्मरूपी विषवृक्षोथी उत्पन्न थतां, निजरूपथी विलक्षण एवां फळोने छोडीने जे जीव हमणां सहजचैतन्यमय आत्मतत्त्वने भोगवे छे, ते जीव अल्प काळमां मुक्तिने पामे छेएमां शो संशय छे? ५७.

स्थानो न क्षायिकभावनां, क्षायोपशमिक तणां नहीं;
स्थानो न उपशमभावनां के उदयभाव तणां नहीं. ४१.

अन्वयार्थः[न क्षायिकभावस्थानानि] जीवने क्षायिकभावनां स्थानो नथी, [न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा] क्षयोपशमस्वभावनां स्थानो नथी, [औदयिकभावस्थानानि] औदयिकभावनां स्थानो नथी [वा] के [न उपशमस्वभावस्थानानि] उपशमस्वभावनां स्थानो नथी.

८० ]