मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि ।
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति संशयः कः ।।५७।।
[श्लोकार्थः] जे नित्य-शुद्ध चिदानंदरूपी संपदाओनी उत्कृष्ट खाण छे अने जे विपदाओनुं अत्यंतपणे अपद छे (अर्थात् ज्यां विपदा बिलकुल नथी) एवा आ ज पदने हुं अनुभवुं छुं. ५६.
[श्लोकार्थः] (अशुभ तेम ज शुभ) सर्व कर्मरूपी विषवृक्षोथी उत्पन्न थतां, निजरूपथी विलक्षण एवां फळोने छोडीने जे जीव हमणां सहजचैतन्यमय आत्मतत्त्वने भोगवे छे, ते जीव अल्प काळमां मुक्तिने पामे छेएमां शो संशय छे? ५७.
अन्वयार्थः[न क्षायिकभावस्थानानि] जीवने क्षायिकभावनां स्थानो नथी, [न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा] क्षयोपशमस्वभावनां स्थानो नथी, [औदयिकभावस्थानानि] औदयिकभावनां स्थानो नथी [वा] के [न उपशमस्वभावस्थानानि] उपशमस्वभावनां स्थानो नथी.
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