Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 45-46.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धभाव अधिकार
[ ९५
वण्णरसगंधफासा थीपुंसणउंसयादिपज्जाया
संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ।।४५।।
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।४६।।
वर्णरसगंधस्पर्शाः स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः
संस्थानानि संहननानि सर्वे जीवस्य नो सन्ति ।।४५।।
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्
जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।४६।।

इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्त म् नित्य आनंद आदि अतुल महिमानो धरनार छे, जे सर्वदा अमूर्त छे, जे पोतामां अत्यंत अविचळपणा वडे उत्तम शीलनुं मूळ छे, ते भवभयने हरनारा मोक्षलक्ष्मीना ऐश्वर्यवान स्वामीने हुं वंदुं छुं. ६९.

स्त्री-पुरुष आदिक पर्ययो, रसवर्णगंधस्पर्श ने
संस्थान तेम ज संहनन सौ छे नहीं जीवद्रव्यने. ४५.
जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
वळी लिंगग्रहणविहीन छे, संस्थान भाख्युं न तेहने. ४६.

अन्वयार्थः[वर्णरसगंधस्पर्शाः] वर्ण-रस-गंध-स्पर्श, [स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः] स्त्री- पुरुष-नपुंसकादि पर्यायो, [संस्थानानि] संस्थानो अने [संहननानि] संहननो[सर्वे] ए बधां [जीवस्य] जीवने [नो सन्ति] नथी.

[जीवम्] जीवने [अरसम्] अरस, [अरूपम्] अरूप, [अगंधम्] अगंध, [अव्यक्त म्] अव्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाळो, [अशब्दम्] अशब्द, [अलिंगग्रहणम्] अलिंगग्रहण (लिंगथी अग्राह्य) अने [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जेने कोई संस्थान कह्युं नथी एवो [जानीहि] जाण.

टीकाःअहीं (आ बे गाथाओमां) परमस्वभावभूत एवुं जे कारणपरमात्मानुं स्वरूप तेने समस्त पौद्गलिक विकारसमूह नथी एम कह्युं छे.