इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्त म् । नित्य आनंद आदि अतुल महिमानो धरनार छे, जे सर्वदा अमूर्त छे, जे पोतामां अत्यंत अविचळपणा वडे उत्तम शीलनुं मूळ छे, ते भवभयने हरनारा मोक्षलक्ष्मीना ऐश्वर्यवान स्वामीने हुं वंदुं छुं. ६९.
अन्वयार्थः[वर्णरसगंधस्पर्शाः] वर्ण-रस-गंध-स्पर्श, [स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः] स्त्री- पुरुष-नपुंसकादि पर्यायो, [संस्थानानि] संस्थानो अने [संहननानि] संहननो[सर्वे] ए बधां [जीवस्य] जीवने [नो सन्ति] नथी.
[जीवम्] जीवने [अरसम्] अरस, [अरूपम्] अरूप, [अगंधम्] अगंध, [अव्यक्त म्] अव्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाळो, [अशब्दम्] अशब्द, [अलिंगग्रहणम्] अलिंगग्रहण (लिंगथी अग्राह्य) अने [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जेने कोई संस्थान कह्युं नथी एवो [जानीहि] जाण.
टीकाःअहीं (आ बे गाथाओमां) परमस्वभावभूत एवुं जे कारणपरमात्मानुं स्वरूप तेने समस्त पौद्गलिक विकारसमूह नथी एम कह्युं छे.