Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचकं, गन्धद्वितयं, स्पर्शाष्टकं, स्त्रीपुंनपुंसकादिविजातीय- विभावव्यंजनपर्यायाः, कुब्जादिसंस्थानानि, वज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यन्ते पुद्गलानामेव, न जीवानाम् संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्त स्य कर्मफलचेतना भवति, त्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति कार्यपरमात्मनः कारण- परमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति अत एव कार्यसमयसारस्य वा कारणसमयसारस्य वा शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूपा भवति अतः सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानं संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपादेयमिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति

तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ

(मन्दाक्रांता)
‘‘आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या
प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः साऽपि भिन्ना तथैव
कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे
भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत
।।’’

निश्चयथी पांच वर्ण, पांच रस, बे गंध, आठ स्पर्श, स्त्री-पुरुष-नपुंसकादि विजातीय विभावव्यंजनपर्यायो, कुब्जादि संस्थानो, वज्रर्षभनाराचादि संहननो पुद्गलोने ज छे, जीवोने नथी. संसार-अवस्थामां स्थावरनामकर्मयुक्त संसारी जीवने कर्मफळचेतना होय छे, त्रसनामकर्मयुक्त संसारी जीवने कार्य सहित कर्मफळचेतना होय छे. कार्यपरमात्माने अने कारणपरमात्माने शुद्धज्ञानचेतना होय छे. तेथी ज कार्यसमयसारने के कारणसमयसारने सहजफळरूप शुद्धज्ञानचेतना होय छे. आथी, सहजशुद्ध-ज्ञानचेतनास्वरूप निज कारण- परमात्मा संसारावस्थामां के मुक्तावस्थामां सर्वदा एकरूप होवाथी उपादेय छे एम, हे शिष्य! तुं जाण.

एवी रीते एकत्वसप्ततिमां (श्रीपद्मनंदी-आचार्यदेवकृत पद्मनंदिपंचविंशतिका नामना शास्त्रने विषे एकत्वसप्तति नामना अधिकारमां ७९मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः

‘‘[श्लोकार्थः] मारुं एम मंतव्य छे केआत्मा जुदो छे अने तेनी पाछळ पाछळ जनारुं कर्म जुदुं छे; आत्मा अने कर्मनी अति निकटताथी जे विकृति थाय छे ते पण तेवी ज रीते (आत्माथी) जुदी छे; वळी काळ-क्षेत्रादिक जे छे ते पण (आत्माथी) जुदां छे. निज निज गुणकळाथी अलंकृत आ बधुंय जुदे जुदुं छे (अर्थात

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