रहितमखिलमूर्तद्रव्यजालं विचित्रम् ।
भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ।।७०।।
शुद्धद्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण संसारिजीवानां मुक्त जीवानां विशेषाभावोपन्यासोयम् । पोतपोताना गुणो अने पर्यायोथी युक्त सर्व द्रव्यो अत्यंत जुदे जुदां छे).’’
वळी (आ बे गाथाओनी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थः] ‘‘बंध हो के न हो (अर्थात् बंधावस्थामां के मोक्षावस्थामां), समस्त विचित्र मूर्तद्रव्यजाळ (अनेकविध मूर्तद्रव्योनो समूह) शुद्ध जीवना रूपथी व्यतिरिक्त छे’’ एम जिनदेवनुं शुद्ध वचन बुधपुरुषोने कहे छे. आ भुवनविदितने ( — आ जगतप्रसिद्ध सत्यने), हे भव्य! तुं सदा जाण. ७०.
अन्वयार्थः[याद्रशाः] जेवा [सिद्धात्मानः] सिद्ध आत्माओ छे [ताद्रशाः] तेवा [भवम् आलीनाः जीवाः] भवलीन (संसारी) जीवो [भवन्ति] छे, [येन] जेथी (ते संसारी जीवो सिद्धात्माओनी माफक) [जरामरणजन्ममुक्ताः] जन्म-जरा-मरणथी रहित अने [अष्टगुणालंकृताः] आठ गुणोथी अलंकृत छे.
टीकाःशुद्धद्रव्यार्थिक नयना अभिप्राये संसारी जीवोमां अने मुक्त जीवोमां तफावत नहि होवानुं आ कथन छे.
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