निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् ।
[श्लोकार्थः] शुद्ध-अशुद्धनी जे १विकल्पना ते मिथ्याद्रष्टिने हंमेशां होय छे; सम्यग्द्रष्टिने तो हंमेशां (एवी मान्यता होय छे के) कारणतत्त्व अने कार्यतत्त्व बन्ने शुद्ध छे. आ रीते परमागमना अतुल अर्थने सारासारना विचारवाळी सुंदर बुद्धि वडे जे सम्यग्द्रष्टि स्वयं जाणे छे, तेने अमे वंदन करीए छीए. ७२.
अन्वयार्थः[एते] आ (पूर्वोक्त) [सर्वे भावाः] बधा भावो [खलु] खरेखर [व्यवहारनयं प्रतीत्य] व्यवहारनयनो आश्रय करीने [भणिताः] (संसारी जीवोमां विद्यमान) कहेवामां आव्या छे; [शुद्धनयात्] शुद्धनयथी [संसृतौ] संसारमां रहेला [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [सिद्धस्वभावाः] सिद्धस्वभावी छे.
टीकाःआ, निश्चयनय अने व्यवहारनयना २उपादेयपणानुं प्रकाशन (-कथन) छे.
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१विकल्पना = विपरीत कल्पना; खोटी मान्यता; अनिश्चय; शंका; भेद पाडवा.
२प्रमाणभूत ज्ञानमां शुद्धात्मद्रव्यनुं तेम ज तेना पर्यायोनुं बन्नेनुं सम्यक् ज्ञान होवुं जोईए. ‘पोताने
कथंचित् विभावपर्यायो विद्यमान छे’ एवो स्वीकार ज जेना ज्ञानमां न होय तेने शुद्धात्मद्रव्यनुं
पण साचुं ज्ञान होई शके नहि. माटे ‘व्यवहारनयना विषयोनुं पण ज्ञान तो ग्रहण करवा योग्य