Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धभाव अधिकार
[ १०१

ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन विद्यन्ते संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सद्रशाः शुद्धनयादेशादिति

तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः

(मालिनी)
‘‘व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित
।।’’

पूर्वे जे विभावपर्यायो ‘विद्यमान नथी’ एम प्रतिपादित करवामां आव्या छे ते बधा विभावपर्यायो खरेखर व्यवहारनयना कथनथी विद्यमान छे. वळी जेओ (व्यवहारनयना कथनथी) चार विभावभावे परिणत होवाथी संसारमां पण रह्या छे ते बधा शुद्धनयना कथनथी शुद्धगुणपर्यायो वडे सिद्धभगवंतो समान छे (अर्थात् जे जीवो व्यवहारनयना कथनथी औदयिकादि विभावभावोवाळा होवाथी संसारी छे तेओ बधा शुद्धनयना कथनथी शुद्ध गुणो अने शुद्ध पर्यायोवाळा होवाथी सिद्ध सद्रश छे).

एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री समयसारनी आत्मख्याति नामनी टीकामां पांचमा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः

‘‘[श्लोकार्थः] जोके व्यवहारनय आ प्रथम भूमिकामां जेमणे पग मूक्यो छे एवा जीवोने, अरेरे! हस्तावलंबरूप भले होय, तोपण जे जीवो चैतन्यचमत्कारमात्र, परथी रहित एवा परम पदार्थने अंतरंगमां देखे छे तेमने ए व्यवहारनय कांई नथी.’’

छे’ एवी विवक्षाथी ज अहीं व्यवहारनयने उपादेय कह्यो छे, ‘तेमनो आश्रय ग्रहण करवा
योग्य छे’ एवी विवक्षाथी नहि. व्यवहारनयना विषयोनो आश्रय (
आलंबन, वलण, संमुखता,
भावना) तो छोडवायोग्य ज छे एम समजाववा ५०मी गाथामां व्यवहारनयने स्पष्टपणे हेय
कहेवामां आवशे. जे जीवने अभिप्रायमां शुद्धात्मद्रव्यना आश्रयनुं ग्रहण अने पर्यायोना
आश्रयनो त्याग होय, ते ज जीवने द्रव्यनुं तेम ज पर्यायोनुं ज्ञान सम्यक् छे एम समजवुं,
अन्यने नहि.