संसृतावपि च नास्ति विशेषः ।
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ।।७३।।
हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम् ।
ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्वं व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्ध-
वळी (आ ४९मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थः] ‘शुद्धनिश्चयनयथी मुक्तिमां तेम ज संसारमां तफावत नथी;’ आम ज खरेखर, तत्त्व विचारतां ( – परमार्थ वस्तुस्वरूपनो विचार अथवा निरूपण करतां), शुद्ध तत्त्वना रसिक पुरुषो कहे छे. ७३.
अन्वयार्थः[पूर्वोक्त सकलभावाः] पूर्वोक्त सर्व भावो [परस्वभावाः] परस्वभावो छे, [परद्रव्यम्] परद्रव्य छे, [इति] तेथी [हेयाः] हेय छे; [अन्तस्तत्त्वं] अंतःतत्त्व [स्वकद्रव्यम्] एवुं स्वद्रव्य[आत्मा] आत्मा[उपादेयम्] उपादेय [भवेत्] छे.
टीकाःआ, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणना स्वरूपनुं कथन छे.
जे कोई विभावगुणपर्यायो छे तेओ पूर्वे (४९मी गाथामां) व्यवहारनयना कथन
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