Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 73 Gatha: 50.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तथा हि
(स्वागता)
शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ
संसृतावपि च नास्ति विशेषः
एवमेव खलु तत्त्वविचारे
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति
।।७३।।
पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ।।५०।।
पूर्वोक्त सकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः
स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ।।५०।।

हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम् ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्वं व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्ध-


वळी (आ ४९मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः

[श्लोकार्थः] ‘शुद्धनिश्चयनयथी मुक्तिमां तेम ज संसारमां तफावत नथी;’ आम ज खरेखर, तत्त्व विचारतां (परमार्थ वस्तुस्वरूपनो विचार अथवा निरूपण करतां), शुद्ध तत्त्वना रसिक पुरुषो कहे छे. ७३.

पूर्वोक्त भावो पर-दरव परभाव, तेथी हेय छे;
आत्मा ज छे आदेय, अंतःतत्त्वरूप निजद्रव्य जे. ५०.

अन्वयार्थः[पूर्वोक्त सकलभावाः] पूर्वोक्त सर्व भावो [परस्वभावाः] परस्वभावो छे, [परद्रव्यम्] परद्रव्य छे, [इति] तेथी [हेयाः] हेय छे; [अन्तस्तत्त्वं] अंतःतत्त्व [स्वकद्रव्यम्] एवुं स्वद्रव्य[आत्मा] आत्मा[उपादेयम्] उपादेय [भवेत्] छे.

टीकाःआ, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणना स्वरूपनुं कथन छे.

जे कोई विभावगुणपर्यायो छे तेओ पूर्वे (४९मी गाथामां) व्यवहारनयना कथन

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