भवत्यहिंसा । तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति । अत एव प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति ।
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ।।’’
तथा हि — अहिंसा छे. तेमनुं मरण थाओ के न थाओ, *प्रयत्नरूप परिणाम विना सावद्यपरिहार (दोषनो त्याग) थतो नथी. आथी ज, प्रयत्नपरायणने हिंसापरिणतिनो अभाव होवाथी अहिंसाव्रत होय छे.
एवी रीते (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामीए (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमां श्री नमिनाथ भगवाननी स्तुति करतां ११९मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः —
‘‘[श्लोकार्थः — ] जगतमां विदित छे के जीवोनी अहिंसा परम ब्रह्म छे. जे आश्रमनी विधिमां लेश पण आरंभ छे त्यां ( – ते आश्रममां अर्थात् सग्रंथपणामां) ते अहिंसा होती नथी. माटे तेनी सिद्धिने अर्थे, (हे नमिनाथ प्रभु!) परम करुणावंत एवा आपश्रीए बन्ने ग्रंथने छोड्या ( – द्रव्य तेम ज भाव बन्ने प्रकारना परिग्रहने तजी निर्ग्रंथपणुं अंगीकृत कर्युं), विकृत वेश तथा परिग्रहमां रत न थया.’’
वळी (५६मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छे)ः —
११० ]
*मुनिने (मुनित्वोचित) शुद्धपरिणतिनी साथे वर्ततो जे (हठ वगरनो) देहचेष्टादिकसंबंधी शुभोपयोग
ते व्यवहार-प्रयत्न छे. [शुद्धपरिणति न होय त्यां शुभोपयोग हठ सहित होय छे; ते शुभोपयोग
तो व्यवहार-प्रयत्न पण कहेवातो नथी.]