स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात् ।
सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम् ।।७७।।
तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् ।
वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्य- संचारशून्यं वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं
[हवे ५७मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः — ] जे पुरुष अति स्पष्टपणे सत्य बोले छे, ते स्वर्गनी स्त्रीओना पुष्कळ भोगोनो एक भागी थाय छे (अर्थात् ते परलोकमां अनन्यपणे देवांगनाओना बहु भोगोने पामे छे) अने आ लोकमां सर्वदा सर्व सत्पुरुषोनो पूज्य बने छे. खरेखर सत्यथी शुं बीजुं कोई (चडियातुं) व्रत छे? ७७.
अन्वयार्थः — [ग्रामे वा] ग्राममां, [नगरे वा] नगरमां [अरण्ये वा] के वनमां [परम् अर्थम्] पारकी वस्तुने [प्रेक्षयित्वा] देखीने [यः] जे (साधु) [ग्रहणभावं] तेने ग्रहवाना भावने [मुंचति] छोडे छे, [तस्य एव] तेने ज [तृतीयव्रतं] त्रीजुं व्रत [भवति] छे.
टीकाः — आ, त्रीजा व्रतना स्वरूपनुं कथन छे.
जेना फरती वाड होय ते ग्राम (गामडुं) छे; जे चार दरवाजाथी सुशोभित होय ते नगर छे; जे मनुष्यना संचार विनानुं, वनस्पतिसमूह, वेलीओ अने झाडनां झुंड
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