Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

भावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः केवलेन शुभकर्मणा, केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्पत्तिर्जन्म दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः एभिर्महा- दोषैर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः एतैर्विनिर्मुक्तो वीतरागसर्वज्ञ इति (१५) परम समरसीभावनी भावना रहित जीवोने (परम समताभावना अनुभव रहित जीवोने) क्यारेक पूर्वे नहि जोयेलुं जोवाने लीधे थतो भाव ते विस्मय छे. (१६) केवळ शुभ कर्मथी देवपर्यायमां जे उत्पत्ति, केवळ अशुभ कर्मथी नारकपर्यायमां जे उत्पत्ति, मायाथी तिर्यंचपर्यायमां जे उत्पत्ति अने शुभाशुभ मिश्र कर्मथी मनुष्यपर्यायमां जे उत्पत्ति, ते जन्म छे. (१७) दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी जेमां ज्ञानज्योति अस्त थई जाय छे ते ज निद्रा छे. (१८) इष्टना वियोगमां विक्लवभाव (गभराट) ते ज उद्वेग छे.


आ (अढार) महा दोषोथी त्रण लोक व्याप्त छे. वीतराग सर्वज्ञ आ दोषोथी विमुक्त छे.

[वीतराग सर्वज्ञने द्रव्य-भाव घातिकर्मोनो अभाव होवाथी तेमने भय, रोष, राग, मोह, शुभाशुभ चिंता, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा तथा उद्वेग क्यांथी होय?

वळी तेमने समुद्र जेटला शातावेदनीयकर्मोदय मध्ये बिंदु जेटलो अशाता- वेदनीयकर्मोदय वर्ते छे ते, मोहनीयकर्मना तद्दन अभावमां, लेशमात्र पण क्षुधा के तृषानुं निमित्त क्यांथी थाय? न ज थाय; कारण के गमे तेटलुं अशातावेदनीयकर्म होय तोपण मोहनीयकर्मना अभावमां दुःखनी लागणी होई शके नहि, तो पछी अहीं तो ज्यां अनंतगुणा शातावेदनीयकर्म मध्ये अल्पमात्र (अविद्यमान जेवुं) अशातावेदनीयकर्म वर्ते छे त्यां क्षुधातृषानी लागणी क्यांथी होय? क्षुधातृषाना सद्भावमां अनंत सुख, अनंत वीर्य वगेरे क्यांथी संभवे? आम वीतराग सर्वज्ञने क्षुधा (तथा तृषा) नहि होवाथी तेमने कवलाहार पण होतो नथी. कवलाहार विना पण तेमने (अन्य मनुष्योने असंभवित एवां,) सुगंधित, सुरसवाळां, सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीररूप नोकर्माहारने योग्य, सूक्ष्म पुद्गलो प्रतिक्षण आवे छे अने तेथी शरीरस्थिति रहे छे.

वळी पवित्रताने अने पुण्यने एवो संबंध होय छे अर्थात् घातिकर्मोना अभावने अने बाकी रहेलां अघातिकर्मोने एवो सहज संबंध होय छे के वीतराग सर्वज्ञने ते बाकी रहेलां अघातिकर्मोना फळरूप परमौदारिक शरीरमां जरा, रोग अने परसेवो होतां नथी.

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