स्मरतिरसुरनाथः प्रास्तदुष्टाघयूथः ।
दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः ।।१३।।
तीर्थंकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषां
[श्लोकार्थः — ] जे सो इन्द्रोथी पूज्य छे, जेमनुं सद्बोधरूपी (सम्यग्ज्ञानरूपी) राज्य विशाळ छे, कामविजयी (लौकांतिक) देवोना जे नाथ छे, दुष्ट पापोना समूहनो जेमणे नाश कर्यो छे, श्री कृष्ण जेमनां चरणोमां नम्या छे, भव्यकमळना जे सूर्य छे (अर्थात् भव्योरूपी कमळोने विकसाववामां जे सूर्य समान छे), ते आनंदभूमि नेमिनाथ ( – आनंदना स्थानरूप नेमिनाथ भगवान) अमने शाश्वत सुख आपो. १३.
अन्वयार्थः — [निःशेषदोषरहितः] (एवा) निःशेष दोषथी जे रहित छे अने [केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः] केवळज्ञानादि परम वैभवथी जे संयुक्त छे, [सः] ते [परमात्मा उच्यते] परमात्मा कहेवाय छे; [तद्विपरीतः] तेनाथी विपरीत [परमात्मा न] ते परमात्मा नथी.
टीकाः — आ, तीर्थंकर परमदेवना स्वरूपनुं कथन छे.
आत्माना गुणोनो घात करनारां घातिकर्मो — ज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म, अंतरायकर्म अने मोहनीयकर्म — छे; तेमनो निरवशेषपणे प्रध्वंस कर्यो होवाथी ( – कांई बाकी
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