Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 13 Gatha: 7.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(मालिनी)
शतमखशतपूज्यः प्राज्यसद्बोधराज्यः
स्मरतिरसुरनाथः प्रास्तदुष्टाघयूथः
पदनतवनमाली भव्यपद्मांशुमाली
दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः
।।१३।।
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो
सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ।।।।
निःशेषदोषरहितः केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः
स परमात्मोच्यते तद्विपरीतो न परमात्मा ।।।।

तीर्थंकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषां

[श्लोकार्थः] जे सो इन्द्रोथी पूज्य छे, जेमनुं सद्बोधरूपी (सम्यग्ज्ञानरूपी) राज्य विशाळ छे, कामविजयी (लौकांतिक) देवोना जे नाथ छे, दुष्ट पापोना समूहनो जेमणे नाश कर्यो छे, श्री कृष्ण जेमनां चरणोमां नम्या छे, भव्यकमळना जे सूर्य छे (अर्थात् भव्योरूपी कमळोने विकसाववामां जे सूर्य समान छे), ते आनंदभूमि नेमिनाथ (आनंदना स्थानरूप नेमिनाथ भगवान) अमने शाश्वत सुख आपो. १३.

सौ दोष रहित, अनंतज्ञानद्रगादि वैभवयुक्त जे,
परमात्म ते कहेवाय, तद्दविपरीत नहि परमात्म छे. ७.

अन्वयार्थः[निःशेषदोषरहितः] (एवा) निःशेष दोषथी जे रहित छे अने [केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः] केवळज्ञानादि परम वैभवथी जे संयुक्त छे, [सः] ते [परमात्मा उच्यते] परमात्मा कहेवाय छे; [तद्विपरीतः] तेनाथी विपरीत [परमात्मा न] ते परमात्मा नथी.

टीकाःआ, तीर्थंकर परमदेवना स्वरूपनुं कथन छे.

आत्माना गुणोनो घात करनारां घातिकर्मोज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म, अंतरायकर्म अने मोहनीयकर्मछे; तेमनो निरवशेषपणे प्रध्वंस कर्यो होवाथी (कांई बाकी

१६ ]