परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७।।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ।।११।।
[भावार्थः — चैतन्यानुविधायी परिणाम ते उपयोग छे. उपयोग बे प्रकारनो छेः (१) ज्ञानोपयोग अने (२) दर्शनोपयोग. ज्ञानोपयोगना पण बे प्रकार छेः (१) स्वभावज्ञानोपयोग अने (२) विभावज्ञानोपयोग. स्वभावज्ञानोपयोग पण बे प्रकारनो छेः (१) कार्यस्वभावज्ञानोपयोग (अर्थात् केवळज्ञानोपयोग) अने (२) कारणस्वभाव- ज्ञानोपयोग (अर्थात् *सहजज्ञानोपयोग). विभावज्ञानोपयोग पण बे प्रकारनो छेः (१) सम्यक् विभावज्ञानोपयोग अने (२) मिथ्या विभावज्ञानोपयोग (अर्थात् केवळ विभावज्ञानोपयोग). सम्यक् विभावज्ञानोपयोगना चार भेदो (सुमतिज्ञानोपयोग, सुश्रुत- ज्ञानोपयोग, सुअवधिज्ञानोपयोग अने मनःपर्ययज्ञानोपयोग) हवेनी बे गाथाओमां कहेशे. मिथ्या विभावज्ञानोपयोगना अर्थात् केवळ विभावज्ञानोपयोगना त्रण भेदो छेः (१) कुमतिज्ञानोपयोग, (२) कुश्रुतज्ञानोपयोग अने (३) विभंगज्ञानोपयोग अर्थात् कुअवधिज्ञानोपयोग.]
[हवे दसमी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः — ] जिनेंद्रकथित समस्त ज्ञानना भेदोने जाणीने जे पुरुष परभावोने परिहरी निज स्वरूपमां स्थित रह्यो थको शीघ्र चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्वमां पेसी जाय छे — ऊंडो ऊतरी जाय छे, ते पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीनो वल्लभ थाय छे (अर्थात् मुक्तिसुंदरीनो पति थाय छे). १७.
*सहजज्ञानोपयोग परम पारिणामिकभावे स्थित छे तेम ज त्रणे काळे उपाधि रहित छे; तेमांथी
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