सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं ।
अत्र च ज्ञानभेदमुक्त म् ।
अन्वयार्थः — [केवलम्] जे (ज्ञान) केवळ, [इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित अने [असहायं] असहाय छे, [तत्] ते [स्वभावज्ञानम् इति] स्वभावज्ञान छे; [संज्ञानेतरविकल्पे] सम्यग्ज्ञान अने मिथ्याज्ञानरूप भेद पाडवामां आवतां, [विभावज्ञानं] विभावज्ञान [द्विविधं भवेत्] बे प्रकारनुं छे.
[संज्ञानं] सम्यग्ज्ञान [चतुर्भेदं] चार भेदवाळुं छेः [मतिश्रुतावधयः तथा एव मनःपर्ययम्] मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय; [अज्ञानं च एव] अने अज्ञान ( – मिथ्याज्ञान) [मत्यादेः भेदतः] मति आदिना भेदथी [त्रिविकल्पम्] त्रण भेदवाळुं छे.
टीकाः — अहीं (आ गाथाओमां) ज्ञानना भेद कह्या छे.
जे उपाधि विनाना स्वरूपवाळुं होवाथी १केवळ छे, आवरण विनाना स्वरूपवाळुं होवाथी क्रम, इन्द्रिय अने (देश-काळादि) २व्यवधान रहित छे, एक एक
(सर्वने जाणनारो) केवळज्ञानोपयोग प्रगटे छे. माटे सहजज्ञानोपयोग कारण छे अने केवळज्ञानोपयोग कार्य छे. आम होवाथी सहजज्ञानोपयोगने कारणस्वभावज्ञानोपयोग कहेवाय छे अने केवळ- ज्ञानोपयोगने कार्यस्वभावज्ञानोपयोग कहेवाय छे.
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१केवळ = एकलुं; निर्भेळ; शुद्ध.
२व्यवधान = आड; पडदो; अंतर; आंतरुं; विघ्न.