यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम् ।
प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ।।४६।।
(अहीं एम ख्यालमां राखवुं के) लोकाकाश, धर्म अने अधर्म सरखा प्रमाणवाळां होवाथी कांई अलोकाकाशने टूंकापणुंनानापणुं नथी (अलोकाकाश तो अनंत छे.)
[हवे ३०मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः] अहीं एम आशय छे केजे (द्रव्य) गमननुं निमित्त छे, जे (द्रव्य) स्थितिनुं कारण छे, वळी बीजुं जे (द्रव्य) सर्वने स्थान देवामां प्रवीण छे, ते बधांने सम्यक् द्रव्यरूपे अवलोकीने (यथार्थपणे स्वतंत्र द्रव्यो तरीके समजीने) भव्यसमूह सर्वदा निज तत्त्वमां प्रवेशो. ४६.
अन्वयार्थः[समयावलिभेदेन तु] समय अने आवलिना भेदथी [द्विविकल्पः] व्यवहारकाळना बे भेद छे [अथवा] अथवा [त्रिविकल्पः भवति] (भूत, वर्तमान अने भविष्यना भेदथी) त्रण भेद छे. [अतीतः] अतीत काळ [संख्यातावलिहतसंस्थानप्रमाणः तु] (अतीत) संस्थानोना अने संख्यात आवलिना गुणाकार जेटलो छे.