Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 51.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अस्य हि द्रव्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां कायत्वमस्त्येव बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः काया इव कायाः पंचास्तिकायाः अस्तित्वं नाम सत्ता सा किंविशिष्टा ? सप्रतिपक्षा, अवान्तरसत्ता महासत्तेति तत्र समस्तवस्तुविस्तरव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैक- रूपव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता अनन्तपर्यायव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता अस्तीत्यस्य भावः अस्तित्वम् अनेन अस्तित्वेन कायत्वेन सनाथाः पंचास्तिकायाः कालद्रव्यस्यास्तित्वमेव, न कायत्वं, काया इव बहुप्रदेशाभावादिति

(आर्या)
इति जिनमार्गाम्भोधेरुद्धृता पूर्वसूरिभिः प्रीत्या
षड्द्रव्यरत्नमाला कंठाभरणाय भव्यानाम् ।।५१।।

छे. आने द्रव्यपणुं ज छे, बाकीनां पांचने कायपणुं (पण) छे ज.

बहु प्रदेशोना समूहवाळुं होय ते ‘काय’ छे. ‘काय’ काय जेवां (शरीर जेवां अर्थात् बहुप्रदेशोवाळां) होय छे. अस्तिकायो पांच छे.

अस्तित्व एटले सत्ता. ते केवी छे? महासत्ता अने अवांतरसत्ताएम सप्रतिपक्ष छे. त्यां, समस्त वस्तुविस्तारमां व्यापनारी ते महासत्ता छे, प्रतिनियत वस्तुमां व्यापनारी ते अवांतरसत्ता छे; समस्त व्यापक रूपमां व्यापनारी ते महासत्ता छे, प्रतिनियत एक रूपमां व्यापनारी ते अवांतरसत्ता छे; अनंत पर्यायोमां व्यापनारी ते महासत्ता छे, प्रतिनियत एक पर्यायमां व्यापनारी ते अवांतरसत्ता छे. पदार्थनो अस्ति’ एवो भाव ते अस्तित्व छे.

आ अस्तित्वथी अने कायत्वथी सहित पांच अस्तिकायो छे. काळद्रव्यने अस्तित्व ज छे, कायत्व नथी, कारण के कायनी माफक तेने बहु प्रदेशोनो अभाव छे.

[हवे ३४ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः] ए रीते जिनमार्गरूपी रत्नाकरमांथी पूर्वाचार्योए प्रीतिपूर्वक

७० ]

१. सप्रतिपक्ष = प्रतिपक्ष सहित; विरोधी सहित. (महासत्ता अने अवांतरसत्ता परस्पर विरोधी छे.)
२. प्रतिनियत = नियत; निश्चित; अमुक ज.
३.
अस्ति= छे (अस्तित्व = होवापणुं)