मेकेन्द्रियादिजीवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।
नाहं शरीरगतबालाद्यवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।
नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।
नाहं भावकर्मात्मकषायचतुष्कं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये ।
इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति ।
(वसंततिलका)
भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्त चिन्तः
स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः ।
मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति पंचरत्नात् ।।१०9।।
आत्माको ही भाता हूँ । मैं एकेन्द्रियादि जीवस्थानभेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके
विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ ।
मैं शरीरसम्बन्धी बालादि अवस्थाभेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ ।
मैं रागादिभेदरूप भावकर्मके भेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ ।
मैं भावकर्मात्मक चार कषायोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ ।
(यहाँ टीकामें जिसप्रकार कर्ताके सम्बन्धमें वर्णन किया, उसीप्रकार कारयिता और
अनुमन्ताके — अनुमोदकके — सम्बन्धमें भी समझ लेना ।)
इसप्रकार पाँच रत्नोंके शोभित कथनविस्तार द्वारा सकल विभावपर्यायोंके सन्न्यासका
( – त्यागका) विधान कहा है ।
[अब इन पाँच गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार पंचरत्नों द्वारा जिसने समस्त विषयोंके ग्रहणकी चिन्ताको
छोड़ा है और निज द्रव्यगुणपर्यायके स्वरूपमें चित्त एकाग्र किया है, वह भव्य जीव निज
भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर अल्प कालमें मुक्तिको प्राप्त करता है ।१०९।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-