एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ।।८२।।
ईद्रग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् ।
तद्दृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ।।८२।।
अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्त म् ।
पूर्वोक्त पंचरत्नांचितार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदाभ्यासे
सति, तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यत एव मध्यस्थाः, तेन कारणेन तेषां
परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति । तस्य चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादि-
निश्चयक्रिया निगद्यते । अतीतदोषपरिहारार्थं यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम् ।
आदिशब्देन प्रत्याख्यानादीनां संभवश्चोच्यत इति ।
गाथा : ८२ अन्वयार्थ : — [इद्रग्भेदाभ्यासे ] ऐसा भेद - अभ्यास होने पर
[मध्यस्थः ] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रम् भवति ] उससे चारित्र होता है ।
[तद्द्रढीकरणनिमित्तं ] उसे (चारित्रको) दृढ़ करनेके लिये [प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ] मैं
प्रतिक्रमणादि कहूँगा ।
टीका : — यहाँ, भेदविज्ञान द्वारा क्रमसे निश्चय - चारित्र होता है ऐसा कहा है ।
पूर्वोक्त पंचरत्नोंसे शोभित अर्थपरिज्ञान ( – पदार्थोंके ज्ञान) द्वारा पंचम गतिकी प्राप्तिके
हेतुभूत ऐसा जीवका और कर्मपुद्गलका भेद - अभ्यास होने पर, उसीमें जो मुमुक्षु सर्वदा
संस्थित रहते हैं, वे उस (सतत भेदाभ्यास) द्वारा मध्यस्थ होते हैं और उस कारणसे उन
परम संयमियोंको वास्तविक चारित्र होता है । उस चारित्रकी अविचल स्थितिके हेतुसे
प्रतिक्रमणादि निश्चयक्रिया कही जाती है । अतीत ( – भूत कालके) दोषोंके परिहार हेतु जो
प्रायश्चित किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । ‘आदि’ शब्दसे प्रत्याख्यानादिका संभव कहा
जाता है (अर्थात् प्रतिक्रमणादिमें जो ‘आदि’ शब्द है वह प्रत्याख्यान आदिका भी समावेश
करनेके लिये है ) ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १५५
इस भेदके अभ्याससे माध्यस्थ हो चारित लहे ।
चारित्रदृढ़ता हेतु हम प्रतिक्रमण आदिक अब कहें ।।८२।।