तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः —
(अनुष्टुभ्)
‘‘भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेदभावे
स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्त मोहः ।
शमजलनिधिपूरक्षालितांहःकलंकः
स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः ।।११०।।
मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ।।८३।।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १३१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; जो कोई
बँधे हैं वे उसीके (भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं ।’’
और (इस ८२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार जब मुनिनाथको अत्यन्त भेदभाव ( – भेदविज्ञान-
परिणाम) होता है, तब यह (समयसार) स्वयं उपयोग होनेसे, मुक्तमोह (मोह रहित) होता
हुआ, शमजलनिधिके पूरसे (उपशमसमुद्रके ज्वारसे) पापकलङ्कको धोकर, विराजता
( – शोभता) है; — वह सचमुच, इस समयसारका कैसा भेद है ! ११०।
रे वचन रचना छोड़ रागद्वेषका परित्याग कर ।
ध्याता निजात्मा जीव तो होता उसीको प्रतिक्रमण ।।८३।।
१५६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-