टीका : — यहाँ, व्यवहारप्रतिक्रमणकी सफलता कही है (अर्थात् द्रव्यश्रुतात्मक
प्रतिक्रमणसूत्रमें वर्णित प्रतिक्रमणको सुनकर — जानकर, सकल संयमकी भावना करना
वही व्यवहारप्रतिक्रमणकी सफलता — सार्थकता है ऐसा इस गाथामें कहा है ) ।
समस्त आगमके सारासारका विचार करनेमें सुन्दर चातुर्य तथा गुणसमूहके धारण
करनेवाले निर्यापक आचार्योंने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें
प्रतिक्रमणका अति विस्तारसे वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीतिको अनुल्लंघता
हुआ जो सुन्दरचारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयमकी भावना करता है, उस महामुनिको —
कि जो (महामुनि) बाह्य प्रपंचसे विमुख है, पंचेन्द्रियके फै लाव रहित देहमात्र जिसे
परिग्रह है और परम गुरुके चरणोंके स्मरणमें आसक्त जिसका चित्त है, उसे — तब (उस
काल) प्रतिक्रमण है ।
[अब इस परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं ]: —
[श्लोकार्थ : — ] निर्यापक आचार्योंकी निरुक्ति ( – व्याख्या) सहित
(प्रतिक्रमणादि सम्बन्धी) कथन सदा सुनकर जिसका चित्त समस्त चारित्रका निकेतन
( – धाम) बनता है, ऐसे उस संयमधारीको नमस्कार हो ।१२५।
अत्र व्यवहारप्रतिक्रमणस्य सफलत्वमुक्त म् ।
यथा हि निर्यापकाचार्यैः समस्तागमसारासारविचारचारुचातुर्यगुणकदम्बकैः
प्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्रमणं, तथा ज्ञात्वा
जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंच-
विमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमगुरुचरणस्मरणासक्त चित्तस्य तदा
प्रतिक्रमणं भवतीति ।
(इन्द्रवज्रा)
निर्यापकाचार्यनिरुक्ति युक्ता-
मुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् ।
समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात्
तस्मै नमः संयमधारिणेऽस्मै ।।१२५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १७९