(वसंततिलका)
यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो-
र्नास्त्यप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः ।
तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय
श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ।।१२६।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] मुमुक्षु ऐसे जिन्हें ( – मोक्षार्थी ऐसे जिन वीरनन्दि मुनिको) सदा
प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण बिलकु ल नहीं है, उन सकलसंयमरूपी
भूषणके धारण करनेवाले श्री वीरनन्दी नामके मुनिको नित्य नमस्कार हो ।१२६।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्गं्रथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नामका पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ
।
१८० ]नियमसार