Niyamsar (Hindi).

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निवारण [कृत्वा ] करके [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ]
उसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [भवेत् ] है
टीका :यह, निश्चयनयके प्रत्याख्यानके स्वरूपका कथन है
यहाँ ऐसा कहा है किव्यवहारनयके कथनसे, मुनि दिन-दिनमें (प्रतिदिन)
भोजन करके फि र योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य और लेह्यकी रुचि छोड़ते हैं; यह
व्यवहार-प्रत्याख्यानका स्वरूप है
निश्चयनयसे, प्रशस्तअप्रशस्त समस्त वचनरचनाके
प्रपंचके परिहार द्वारा शुद्धज्ञानभावनाकी सेवाके प्रसाद द्वारा जो नवीन शुभाशुभ द्रव्यकर्मोंका
तथा भावकर्मोंका संवर होना सो प्रत्याख्यान है जो सदा अन्तर्मुख परिणमनसे परम कलाके
आधाररूप अति-अपूर्व आत्माको ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३४वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ :] ‘अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर हैं’ऐसा जानकर प्रत्याख्यान
करता हैत्याग करता है, इसीलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (अर्थात् अपने ज्ञानमें त्यागरूप
अवस्था ही प्रत्याख्यान है ) ऐसा नियमसे जानना ’’
निश्चयनयप्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत
अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं
प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् निश्चयनयतः प्रशस्ता-
प्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभाव-
कर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम्
यः सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति
तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति
तथा चोक्तं समयसारे
‘‘सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ।।’’
प्रपंच = विस्तार (अनेक प्रकारकी समस्त वचनरचनाको छोड़कर शुद्ध ज्ञानको भानेसेउस भावनाके
सेवनकी कृपासेभावकर्मोंका तथा द्रव्यकर्मोंका संवर होता है )
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-