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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(मालिनी)
अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् ।
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् ।
तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६९।।
(मालिनी)
जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः ।
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः ।
विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।।
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।।
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति ।
परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ।।११२।।
परावर्तनरूप) संसारका मूल विविध भेदोंवाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो
जन्ममरण रहित है और पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे ( – शुद्धात्माको) मैं नमन
जन्ममरण रहित है और पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे ( – शुद्धात्माको) मैं नमन
करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ ।१६८।
[श्लोकार्थ : — ] इस प्रकार आदि - अन्त रहित ऐसी यह आत्मज्योति सुललित (सुमधुर) वाणीका अथवा सत्य वाणीका भी विषय नहीं है; तथापि गुरुके वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका पति होता है ) ।१६९।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने सहज तेजसे रागरूपी अन्धकारका नाश किया है, जो मुनिवरोंके मनमें वास करता है, जो शुद्ध - शुद्ध है, जो विषयसुखमें रत जीवोंको सर्वदा दुर्लभ है, जो परम सुखका समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है तथा जिसने निद्राका नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध आत्मा) जयवन्त है ।१७०।
अर्हंत लोकालोक दृष्टाका कथन है भव्यको
— ‘है भावशुद्धि मान, माया, लोभ, मद बिन भाव जो’ ।।११२।।