२२४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्र-
द्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्त : शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्य-
प्राणिनां लोकालोकप्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्भिरर्हद्भिरभिहित इति ।
(मालिनी)
अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं
परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् ।
परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् ।
तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्ध्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७१।।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१७१।।
(वसंततिलका)
आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या
निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम् ।
निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम् ।
शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२।।
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२।।
निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसे निरंजन निज
परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है । — इन चारों
परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है । — इन चारों
भावोंसे परिमुक्त ( – रहित) शुद्धभाव वही भावशुद्धि है ऐसा भव्य जीवोंको लोकालोकदर्शी,
परमवीतराग सुखामृतके पानसे परितृप्त अर्हंतभगवन्तोंने कहा है ।
[अब इस परम - आलोचना अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो भव्य लोक (भव्यजनसमूह) जिनपतिके मार्गमें कहे हुए समस्त आलोचनाके भेदजालको देखकर तथा निज स्वरूपको जानकर सर्व ओरसे परभावको छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका पति होता है ) ।१७१।
[श्लोकार्थ : — ] संयमियोंको सदा मोक्षमार्गका फल देनेवाली तथा शुद्ध आत्मतत्त्वमें ❃नियत आचरणके अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे संयमीको वास्तवमें कामधेनुरूप हो ।१७२। ❃ नियत = निश्चित; दृढ; लीन; परायण । [आचरण शुद्ध आत्मतत्त्वके आश्रित होता है । ]