[श्लोकार्थ : — ] मुमुक्षु जीव तीन लोकको जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्वको
भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धिके हेतु शुद्ध शीलका (चारित्रका) आचरण करके,
सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है — सिद्धिको प्राप्त करता है ।१७३।
[श्लोकार्थ : — ] तत्त्वमें मग्न ऐसे जिनमुनिके हृदयकमलकी केसरमें जो आनन्द
सहित विराजमान है, जो बाधा रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेवके बाणोंकी गहन
( – दुर्भेद्य) सेनाको जला देनेके लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक
द्वारा मुनियोंके मनोगृहके घोर अंधकारका नाश किया है, उसे — साधुओं द्वारा वंद्य तथा
जन्मार्णवको लाँघ जानेमें नौकारूप उस शुद्ध तत्त्वको — मैं वंदन करता हूँ ।१७४।
[श्लोकार्थ : — ] हम पूछते हैं कि — जो समग्र बुद्धिमान होने पर भी दूसरेको
‘यह नवीन पाप कर’ ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तवमें तपस्वी हैं ? अहो ! खेद है
(शालिनी)
शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद्
बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः ।
तत्सिद्धयर्थं शुद्धशीलं चरित्वा
सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।१७३।।
(स्रग्धरा)
सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये
निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् ।
शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं
तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम् ।।१७४।।
(हरिणी)
अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये
विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि ।
हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम् ।।१७५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २२५