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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(हरिणी)
जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं
सततसुलभं भास्वत्सम्यग्द्रशां समतालयम् ।
सततसुलभं भास्वत्सम्यग्द्रशां समतालयम् ।
परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः
स्फु टितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ।।१७६।।
स्फु टितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ।।१७६।।
(हरिणी)
सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् ।
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् ।
विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।।
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।।
(द्रुतविलंबित)
जयति शांतरसामृतवारिधि-
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः ।
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः ।
अतुलबोधदिवाकरदीधिति-
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः ।।१७८।।
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः ।।१७८।।
कि वे हृदयमें विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम ❃पिंडरूप इस पदको जानकर पुनः भी
सरागताको प्राप्त होते हैं ! १७५।
[श्लोकार्थ : — ] तत्त्वोंमें वह सहज तत्त्व जयवन्त है — कि जो सदा अनाकुल है, जो निरन्तर सुलभ है, जो प्रकाशमान है, जो सम्यग्दृष्टियोंको समताका घर है, जो परम कला सहित विकसित निज गुणोंसे प्रफु ल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था स्फु टित ( – प्रकटित) है और जो निरन्तर निज महिमामें लीन है ।१७६।
[श्लोकार्थ : — ] सात तत्त्वोंमें सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल - विमल (सर्वथा विमल) ज्ञानका आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय) है, स्पष्ट - स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख है और मुनिको भी मनसे तथा वाणीसे अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं ।१७७।
[श्लोकार्थ : — ] जो (जिन) शान्त रसरूपी अमृतके समुद्रको (उछालनेके ❃ पिंड = (१) पदार्थ; (२) बल ।