प्रहतदारुणरागकदम्बकः ।
जयति यः परमात्मपदस्थितः ।।१७९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमालोचनाधिकारः सप्तमः श्रुतस्कन्धः ।। लिये) प्रतिदिन उदयमान सुन्दर चन्द्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे मोहतिमिरके समूहका नाश किया है, वह जिन जयवन्त है ।१७८।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने जन्म - जरा - मृत्युके समूहको जीत लिया है, जिसने दारुण रागके समूहका हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकारके समूहके लिये सूर्य समान है तथा जो परमात्मपदमें स्थित है, वह जयवन्त है ।१७९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम - आलोचना अधिकार नामका सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।