Niyamsar (Hindi). Gatha: 114.

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पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियोंके तथा
मनवचनकायाके संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियोंका निरोधयह परिणतिविशेष सो
प्रायश्चित्त है प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्तप्रचुररूपसे निर्विकार चित्त अन्तर्मुखाकार
परमसमाधिसे युक्त, परम जिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवीको (जलानेके लिये) अग्नि समान,
पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके
शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस
- झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभको यह प्रायश्चित्त
निरंतर कर्तव्य है
[अब इस ११३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मुनियोंको स्वात्माका चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुखमें
रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पापको झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं यदि मुनियोंको
(स्वात्माके अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पापको उत्पन्न करते
हैं
इसमें क्या आश्चर्य है ? १८०
पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स
खलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार-
परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण
सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति
(मंदाक्रांता)
प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः
अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत
।।१८०।।
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।।११४।।
क्रोधादि आत्म - विभावके क्षय आदिकी जो भावना
है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुणकी चिंतना ।।११४।।
शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २२९