पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियोंके तथा
मनवचनकायाके संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियोंका निरोध — यह परिणतिविशेष सो
प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त — प्रचुररूपसे निर्विकार चित्त । अन्तर्मुखाकार
परमसमाधिसे युक्त, परम जिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवीको (जलानेके लिये) अग्नि समान,
पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके
शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस - झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभको यह प्रायश्चित्त
निरंतर कर्तव्य है ।
[अब इस ११३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मुनियोंको स्वात्माका चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुखमें
रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पापको झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । यदि मुनियोंको
(स्वात्माके अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पापको उत्पन्न करते
हैं । — इसमें क्या आश्चर्य है ? १८०।
पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स
खलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार-
परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण
सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति ।
(मंदाक्रांता)
प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः ।
अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।१८०।।
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं ।
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।।११४।।
क्रोधादि आत्म - विभावके क्षय आदिकी जो भावना ।
है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुणकी चिंतना ।।११४।।
शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २२९