गाथा : ११४ अन्वयार्थ : — [क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां ] क्रोध
आदि स्वकीय भावोंके ( – अपने विभावभावोंके) क्षयादिककी भावनामें [निर्ग्रहणम् ] रहना
[च ] और [निजगुणचिन्ता ] निज गुणोंका चिंतन करना वह [निश्चयतः ] निश्चयसे
[प्रायश्चित्तं भणितम् ] प्रायश्चित्त कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) सकल कर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा
निश्चय - प्रायश्चित्त कहा गया है ।
क्रोधादिक समस्त मोहरागद्वेषरूप विभावस्वभावोंके क्षयके कारणभूत निज
कारणपरमात्माके स्वभावकी भावना होने पर निसर्गवृत्तिके कारण (अर्थात् स्वाभाविक –
सहज परिणति होनेके कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्माके गुणात्मक ऐसे
जो शुद्ध - अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूपके सहजज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना वह
प्रायश्चित्त है ।
[अब इस ११४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मुनियोंको कामक्रोधादि अन्य भावोंके क्षयकी जो संभावना
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम् ।
प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः ।।११४।।
इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्त म् ।
क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायां
सत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूप-
सहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति ।
(शालिनी)
प्रायश्चित्तमुक्त मुच्चैर्मुनीनां
कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च ।
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा
सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ।।१८१।।
२३० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-