जगतमें नित्य जयवन्त है — कि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्वधर्मत्यागरूप
(मोहरूप) अतिप्रबल तिमिरसमूहको दूर किया है और जो उस ❃अघसेनाकी ध्वजाको
हर लेता है ।२१०।
[श्लोकार्थ : — ] यह अनघ (निर्दोष) आत्मतत्त्व जयवन्त है — कि जिसने
संसारको अस्त किया है, जो महामुनिगणके अधिनाथके ( – गणधरोंके) हृदयारविन्दमें
स्थित है, जिसने भवका कारण छोड़ दिया है, जो एकान्तसे शुद्ध प्रगट हुआ है
(अर्थात् जो सर्वथा - शुद्धरूपसे स्पष्ट ज्ञात होता है ) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण
चैतन्यसामान्यरूप) निज महिमामें लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है ।२११।
गाथा : १२७ अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिसे [संयमे ] संयममें, [नियमे ] नियममें
और [तपसि ] तपमें [आत्मा ] आत्मा [सन्निहितः ] समीप है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ]
सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) भी आत्मा ही उपादेय है ऐसा कहा है ।
(पृथ्वी)
जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं
महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् ।
विमुक्त भवकारणं स्फु टितशुद्धमेकान्ततः
सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्रºशां गोचरम् ।।२११।।
जस्स संणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२७।।
यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२७।।
अत्राप्यात्मैवोपादेय इत्युक्त : ।
❃ अघ = दोष; पाप ।
संयम – नियम – तपमें अहो ! आत्मा समीप जिसे रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ।।१२७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २५७