Niyamsar (Hindi).

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बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख और समस्त इन्द्रियव्यापारको जीते हुए ऐसे जिस भावी
जिनको पापक्रियाकी निवृत्तिरूप बाह्यसंयममें, काय - वचन - मनोगुप्तिरूप, समस्त
इन्द्रियव्यापार रहित अभ्यंतरसंयममें, मात्र परिमित (मर्यादित) कालके आचरणस्वरूप
नियममें, निजस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप, चिन्मय
- परमब्रह्ममें नियत (निश्चल रहे हुए)
ऐसे निश्चयअन्तर्गत-आचारमें (अर्थात् निश्चय - अभ्यंतर नियममें), व्यवहारसे प्रपंचित
(ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचाररूप) पंचाचारमें (अर्थात् व्यवहारतपश्चरणमें), तथा
पंचमगतिके हेतुभूत, किंचित् भी परिग्रहप्रपंचसे सर्वथा रहित, सकल दुराचारकी निवृत्तिके
कारणभूत ऐसे परम तपश्चरणमें (
इन सबमें) परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त किया हुआ निरंजन
निज कारणपरमात्मा सदा समीप है (अर्थात् जिस मुनिको संयममें, नियममें और तपमें निज
कारणपरमात्मा सदा निकट है ), उस परद्रव्यपराङ्मुख परमवीतराग
- सम्यक्दृष्टि वीतराग -
चारित्रवंतको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा केवलियोंके शासनमें कहा है
[अब इस १२७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] यदि शुद्धदृष्टिवन्त (सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि
परम मुनिको तपमें, नियममें, संयममें और सत्चारित्रमें सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है
यस्य खलु बाह्यप्रपंचपराङ्मुखस्य निर्जिताखिलेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पाप-
क्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाङ्मनोगुप्तिरूपसकलेन्द्रियव्यापारवर्जितेऽभ्यन्तरात्मनि
परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्मयनियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे
व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहीणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे
परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सन्निहित इति
केवलिनां शासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्
द्रष्टेर्वीतरागचारित्रभाजः
सामायिकव्रतं स्थायि भवतीति
(मंदाक्रांता)
आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे
तिष्ठत्युच्चैः परमयमिनः शुद्ध
द्रष्टेर्मनश्चेत
तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे
साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे
।।२१२।।
प्रपंचित = दर्शाये गये; विस्तारको प्राप्त
२५८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-