(अर्थात् प्रत्येक कार्यमें निरन्तर शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ
कि) रागके नाशके कारण १अभिराम ऐसे उस भवभयहर भावि तीर्थाधिनाथको यह
साक्षात् सहज - समता अवश्य है । २१२ ।
गाथा : १२८ अन्वयार्थ : — [यस्य ] जिसे [रागः तु ] राग या [द्वेषः तु ]
द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं ] विकृति [न तु जनयति ] उत्पन्न नहीं करता,
[तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा
केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यहाँ रागद्वेषके अभावसे २अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है ।
पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमीको राग
या द्वेष ❃विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्दके अभिलाषी जीवको — कि
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२८।।
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२८।।
इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्त म् ।
यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपावकस्य रागो वा द्वेषो वा विकृतिं
नावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्र-
१ – अभिराम = मनोहर; सुन्दर । (भवभयके हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्करने रागका नाश किया होनेसे
वह मनोहर है ।)
२ – अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २५९
❃ विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणतिसे विरुद्ध परिणति । [परमवीतरागसंयमीको समतास्वभावी
शुद्धात्मद्रव्यका दृढ़ आश्रय होनेसे विकृतिभूत (विभावभूत) विषमता (रागद्वेषपरिणति) नहीं होती, परन्तु
प्रकृतिभूत (स्वभावभूत) समतापरिणाम होता है । ]
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृति लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२८।।