Niyamsar (Hindi). Gatha: 128.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २५९
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२८।।
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१२८।।
इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्त म्
यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपावकस्य रागो वा द्वेषो वा विकृतिं

नावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्र- (अर्थात् प्रत्येक कार्यमें निरन्तर शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ कि) रागके नाशके कारण अभिराम ऐसे उस भवभयहर भावि तीर्थाधिनाथको यह साक्षात् सहज - समता अवश्य है २१२

गाथा : १२८ अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसे [रागः तु ] राग या [द्वेषः तु ] द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं ] विकृति [न तु जनयति ] उत्पन्न नहीं करता, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है

टीका :यहाँ रागद्वेषके अभावसे अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है

पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमीको राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्दके अभिलाषी जीवकोकि अभिराम = मनोहर; सुन्दर (भवभयके हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्करने रागका नाश किया होनेसे

वह मनोहर है )

अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणतिसे विरुद्ध परिणति [परमवीतरागसंयमीको समतास्वभावी

शुद्धात्मद्रव्यका दृढ़ आश्रय होनेसे विकृतिभूत (विभावभूत) विषमता (रागद्वेषपरिणति) नहीं होती, परन्तु
प्रकृतिभूत (स्वभावभूत) समतापरिणाम होता है
]
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृति लहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२८।।