Niyamsar (Hindi). Gatha: 129.

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जिसे पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रह है उसेसामायिक नामका व्रत
शाश्वत है ऐसा केवलियोंके शासनमें प्रसिद्ध है
[अब इस १२८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूपी घोर अंधकारका नाश
किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृतका पूर (अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व)
जहाँ निकट है, वहाँ वे रागद्वेष विकृति करनेमें समर्थ नहीं ही है
उस नित्य
(शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्वमें विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी
आत्मतत्त्वमें ‘यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है’ ऐसे विधिनिषेधके
विकल्परूप स्वभाव न होनेसे उस आत्मतत्त्वका दृढ़तासे आलम्बन लेनेवाले मुनिको
स्वभावपरिणमन होनेके कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधिनिषेधके
विकल्परूप
रागद्वेषरूप परिणाम नहीं होते ) २१३
परिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति
(मंदाक्रांता)
रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थौ
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे
आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः
।।२१३।।
जो दु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२९।।
२६० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
रे ! आर्त्त - रौद्र दुध्यानका नित ही जिसे वर्जन रहे
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२९।।