जिसे पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रह है उसे — सामायिक नामका व्रत
शाश्वत है ऐसा केवलियोंके शासनमें प्रसिद्ध है ।
[अब इस १२८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूपी घोर अंधकारका नाश
किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृतका पूर (अर्थात् ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व)
जहाँ निकट है, वहाँ वे रागद्वेष विकृति करनेमें समर्थ नहीं ही है । उस नित्य
(शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्वमें विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी
आत्मतत्त्वमें ‘यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है’ ऐसे विधिनिषेधके
विकल्परूप स्वभाव न होनेसे उस आत्मतत्त्वका दृढ़तासे आलम्बन लेनेवाले मुनिको
स्वभावपरिणमन होनेके कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधिनिषेधके
विकल्परूप — रागद्वेषरूप परिणाम नहीं होते ।) ।२१३।
परिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति ।
(मंदाक्रांता)
रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थौ
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे ।
आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः ।।२१३।।
जो दु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१२९।।
२६० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
रे ! आर्त्त - रौद्र दुध्यानका नित ही जिसे वर्जन रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१२९।।