पानपरायणो जीवः तिर्यग्योनिप्रेतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशः संत्यजति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्धं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति ।
गाथा : १२९ अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [आर्त्तं ] आर्त [च ] और [रौद्रं च ] रौद्र [ध्यानं ] ध्यानको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यह, आर्त और रौद्र ध्यानके परित्याग द्वारा सनातन (शाश्वत) सामायिकव्रतके स्वरूपका कथन है ।
नित्य - निरंजन निज कारणसमयसारके स्वरूपमें नियत ( – नियमसे स्थित) शुद्ध - निश्चय - परम - वीतराग - सुखामृतके पानमें परायण ऐसा जो जीव तिर्यंचयोनि, प्रेतवास और नारकादिगतिकी योग्यताके हेतुभूत आर्त और रौद्र दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है, उसे वास्तवमें केवलदर्शनसिद्ध ( – केवलदर्शनसे निश्चित हुआ) शाश्वत सामायिकव्रत है ।
[अब इस १२९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार, जो मुनि आर्त और रौद्र नामके दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है उसे जिनशासनसिद्ध ( – जिनशासनसे निश्चित हुआ) अणुव्रतरूप सामायिकव्रत है ।२१४।