संवाहनादिवैयावृत्यकरणजनितशुभपरिणतिविशेषसमुपार्जितं पुण्यकर्म, हिंसानृतस्तेयाब्रह्म- परिग्रहपरिणामसंजातमशुभकर्म, यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः संसृतिपुरंध्रिका- विलासविभ्रमजन्मभूमिस्थानं तत्कर्मद्वयमिति त्यजति, तस्य नित्यं केवलिमतसिद्धं सामायिकव्रतं भवतीति ।
गाथा : १३० अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [पुण्यं च ] पुण्य तथा [पापं भावं च ] पापरूप भावको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायी ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
टीका : — यह, शुभाशुभ परिणामसे उत्पन्न होनेवाले सुकृतदुष्कृतरूप कर्मके संन्यासकी विधिका ( – शुभाशुभ कर्मके त्यागकी रीतिका) कथन है ।
बाह्य - अभ्यंतर परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित परमजिनयोगीश्वरोंका चरणकमलप्रक्षालन, १चरणकमलसंवाहन आदि वैयावृत्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली शुभपरिणतिविशेषसे (विशिष्ट शुभ परिणतिसे) उपार्जित पुण्यकर्मको तथा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहके परिणामसे उत्पन्न होनेवाले अशुभकर्मको, वे दोनों कर्म संसाररूपी स्त्रीके २विलासविभ्रमका जन्मभूमिस्थान होनेसे, जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि ( – जो परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) छोड़ता है, उसे नित्य केवलीमतसिद्ध (केवलियोंके मतमें निश्चित हुआ) सामायिकव्रत है । १ – चरणकमलसंवाहन = पाँव दबाना; पगचंपी करना । २ – विलासविभ्रम = विलासयुक्त हावभाव; क्रीड़ा ।