[अब इस १३०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] सम्यग्दृष्टि जीव संसारके मूलभूत सर्व पुण्यपापको छोड़कर,
नित्यानन्दमय, सहज, शुद्धचैतन्यरूप जीवास्तिकायको प्राप्त करता है; वह शुद्ध
जीवास्तिकायमें सदा विहरता है और फि र त्रिभुवनजनोंसे (तीन लोकके जीवोंसे) अत्यन्त
पूजित ऐसा जिन होता है ।२१५।
[श्लोकार्थ : — ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान पापपुण्यरूपी वनको जलानेवाली अग्नि है,
महामोहांधकारनाशक अतिप्रबल तेजमय है, विमुक्तिका मूल है और ❃निरुपधि महा
आनन्दसुखका दायक है । भवभवका ध्वंस करनेमें निपुण ऐसे इस ज्ञानको मैं नित्य पूजता
हूँ ।२१६।
[श्लोकार्थ : — ] यह जीव अघसमूहके वश संसृतिवधूका पतिपना प्राप्त करके
(अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके वश संसाररूपी स्त्रीका पति बनकर) कामजनित सुखके लिये
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा सर्वं सुकृतदुरितं संसृतेर्मूलभूतं
नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम् ।
तस्मिन् सद्दृग् विहरति सदा शुद्धजीवास्तिकाये
पश्चादुच्चैः त्रिभुवनजनैरर्चितः सन् जिनः स्यात् ।।२१५।।
(शिखरिणी)
स्वतःसिद्धं ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं
महामोहध्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम् ।
विनिर्मुक्तेर्मूलं निरुपधिमहानंदसुखदं
यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुणम् ।।२१६।।
(शिखरिणी)
अयं जीवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधू-
धवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः ।
क्वचिद् भव्यत्वेन व्रजति तरसा निर्वृतिसुखं
तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।।२१७।।
❃ निरुपधि = छलरहित; सच्चे; वास्तविक ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-समाधि अधिकार[ २६३