आकुल मतिवाला होकर जी रहा है । कभी भव्यत्व द्वारा शीघ्र मुक्तिसुखको प्राप्त करता
है, उसके पश्चात् फि र उस एकको छोड़कर वह सिद्ध चलित नहीं होता (अर्थात् एक
मुक्तिसुख ही ऐसा अनन्य, अनुपम तथा परिपूर्ण है कि उसे प्राप्त करके उसमें आत्मा
सदाकाल तृप्त - तृप्त रहता है, उसमेंसे कभी च्युत होकर अन्य सुख प्राप्त करनेके लिये आकुल
नहीं होता) ।२१७।
गाथा : १३१-१३२ अन्वयार्थ : — [यः तु ] जो [हास्यं ] हास्य, [रतिं ]
रति, [शोकं ] शोक और [अरतिं ] अरतिको [नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है,
[तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक [स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा
केवलीके शासनमें कहा है ।
[यः ] जो [जुगुप्सां ] जुगुप्सा [भयं ] भय और [सर्वं वेदं ] सर्व वेदको
[नित्यशः ] नित्य [वर्जयति ] वर्जता है, [तस्य ] उसे [सामायिकं ] सामायिक
[स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है ।
जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३१।।
जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।१३२।।
यस्तु हास्यं रतिं शोकं अरतिं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३१।।
यः जुगुप्सां भयं वेदं सर्वं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ।।१३२।।
२६४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो नित्य वर्जे हास्य, अरु रति, अरति, शोकविरत रहे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१३१।।
जो नित्य वर्जे भय जुगुप्सा, सर्व वेद समूह रे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ।।१३२।।