लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च ।
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ।।२८३।।
‘‘[गाथार्थ : — ] देखनेवालेका जो ज्ञान अमूर्तको, मूर्त पदार्थोंमें भी अतीन्द्रियको, और प्रच्छन्नको इन सबको — स्वको तथा परको — देखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ।’’
और (इस १६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] केवलज्ञान नामका जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसीसे जिनकी प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोकके गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका ❃धाम है — ऐसे यह तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोकको अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन - अचेतन पदार्थोंको सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) जानते हैं ।२८३।
गाथा : १६८ अन्वयार्थ : — [नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ] विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं ] पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको [यः ] जो [सम्यक् ] सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [न च पश्यति ] नहीं देखता, [तस्य ] उसे [परोक्षदृष्टिः ❃ धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल ।