Niyamsar (Hindi). Gatha: 168.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘‘जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिंदियं च पच्छण्णं
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा
लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च
तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः
।।२८३।।
पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।।१६८।।
पूर्वोक्त सकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्त म्
यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षद्रष्टिर्भवेत्तस्य ।।१६८।।

‘‘[गाथार्थ : ] देखनेवालेका जो ज्ञान अमूर्तको, मूर्त पदार्थोंमें भी अतीन्द्रियको, और प्रच्छन्नको इन सबकोस्वको तथा परकोदेखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ’’

और (इस १६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] केवलज्ञान नामका जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसीसे जिनकी प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोकके गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका धाम हैऐसे यह तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोकको अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन - अचेतन पदार्थोंको सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) जानते हैं २८३

गाथा : १६८ अन्वयार्थ :[नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ] विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं ] पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको [यः ] जो [सम्यक् ] सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [न च पश्यति ] नहीं देखता, [तस्य ] उसे [परोक्षदृष्टिः धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल

जो विविध गुण पर्यायसे संयुक्त सारी सृष्टि है
देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ।।१६८।।