पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतन- गुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामा- ण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षद्रष्टिरिति ।
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी ।
भवेत् ] परोक्ष दर्शन है ।
टीका : — यहाँ, केवलदर्शनके अभावमें (अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शनके अभावमें ) सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है ।
समस्त गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथामें कहे हुए ) मूर्तादि द्रव्योंको जो नहीं देखता; — अर्थात् मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण होते हैं, अचेतनके अचेतन गुण होते हैं, अमूर्तके अमूर्त गुण होते हैं, चेतनके चेतन गुण होते हैं; षट् (छह प्रकारकी ) हानिवृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागमके प्रमाणसे स्वीकार - करनेयोग्य अर्थपर्यायें छह द्रव्योंको साधारण हैं, नरनारकादि व्यंजनपर्यायें पांच प्रकारकी ❃संसारप्रपंचवाले जीवोंको होती हैं, पुद्गलोंको स्थूल - स्थूल आदि स्कन्धपर्यायें होती हैं और धर्मादि चार द्रव्योंको शुद्ध पर्यायें होती हैं; इन गुणपर्यायोंसे संयुक्त ऐसे उस द्रव्यसमूहको जो वास्तवमें नहीं देखता; — उसे (भले वह सर्वज्ञताके अभिमानसे दग्ध हो तथापि ) संसारियोंकी भाँति परोक्ष दृष्टि है ।
[अब इस १६८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] सर्वज्ञताके अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही कालमें तीन ❃ संसारप्रपंच = संसारविस्तार । (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव — ऐसे पाँच परावर्तनरूप