Niyamsar (Hindi). Gatha: 169.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६९।।
लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान्
यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ।।१६९।।
व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम्
सकलविमलकेवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशः

षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया जगतको तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा (अर्थात् कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्माको सर्वज्ञता किसप्रकार होगी ? २८४

गाथा : १६९ अन्वयार्थ :[केवली भगवान् ] (व्यवहारसे ) केवली भगवान [लोकालोकौ ] लोकालोकको [जानाति ] जानते हैं, [न एव आत्मानम् ] आत्माको नहीं[एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कोई दोष नहीं है )

टीका :यह, व्यवहारनयकी प्रगटतासे कथन है

पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )’ ऐसे (शास्त्रके) अभिप्रायके कारण, व्यवहारसे व्यवहारनयकी प्रधानता द्वारा (अर्थात् व्यवहारसे व्यवहारनयको प्रधान करके), ‘सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर कामिनीके जो जीवितेश हैं (मुक्तिसुन्दरीके जो प्राणनाथ हैं ) ऐसे भगवान छह द्रव्योंसे व्याप्त तीन लोकको और शुद्ध - आकाशमात्र अलोकको जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार ) शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं ही जानते’ऐसा यदि व्यवहारनयकी विवक्षासे कोई जिननाथके

भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्म ना

यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६९।।