षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया जगतको तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा (अर्थात् कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्माको सर्वज्ञता किसप्रकार होगी ? ।२८४।
गाथा : १६९ अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] (व्यवहारसे ) केवली भगवान [लोकालोकौ ] लोकालोकको [जानाति ] जानते हैं, [न एव आत्मानम् ] आत्माको नहीं — [एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कोई दोष नहीं है । )
‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )’ ऐसे (शास्त्रके) अभिप्रायके कारण, व्यवहारसे व्यवहारनयकी प्रधानता द्वारा (अर्थात् व्यवहारसे व्यवहारनयको प्रधान करके), ‘सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर कामिनीके जो जीवितेश हैं ( – मुक्तिसुन्दरीके जो प्राणनाथ हैं ) ऐसे भगवान छह द्रव्योंसे व्याप्त तीन लोकको और शुद्ध - आकाशमात्र अलोकको जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार ) शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं ही जानते’ — ऐसा यदि व्यवहारनयकी विवक्षासे कोई जिननाथके
— यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६९।।