चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् ।
वचनमिदं वदतांवरस्य ते ।।’’
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् ।
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः ।।२८५।।
तत्त्वविचारमें निपुण जीव ( – जिनदेवने कहे हुए तत्त्वके विचारमें प्रवीण जीव ) कदाचित् कहे, तो उसे वास्तवमें दूषण नहीं है ।
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री समन्तभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें भी मुनिसुव्रत भगवानकी स्तुति करते हुए ११४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] हे जिनेन्द्र ! तू वक्ताओंमें श्रेष्ठ है; ‘चराचर (जङ्गम तथा स्थावर ) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समयमें ) उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणवाला है’ ऐसा यह तेरा वचन (तेरी ) सर्वज्ञताका चिह्न है ।’’
और (इस १६९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] तीर्थनाथ वास्तवमें समस्त लोकको जानते हैं और वे एक, अनघ (निर्दोष ), निजसौख्यनिष्ठ (निज सुखमें लीन ) स्वात्माको नहीं जानते — ऐसा कोई मुनिवर व्यवहारमार्गसे कहे तो उसे दोष नहीं है ।२८५।