गाथा : १७० अन्वयार्थ : — [ज्ञानं ] ज्ञान [जीवस्वरूपं ] जीवका स्वरूप है,
[तस्मात् ] इसलिये [आत्मा ] आत्मा [आत्मकं ] आत्माको [जानाति ] जानता है;
[आत्मानं न अपि जानाति ] यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो [आत्मनः ] आत्मासे
[व्यतिरिक्तम् ] व्यतिरिक्त (पृथक् ) [भवति ] सिद्ध हो !
टीका : — यहाँ (इस गाथामें ) ‘जीव ज्ञानस्वरूप है’ ऐसा वितर्कसे (दलीलसे )
कहा है ।
प्रथम तो, ज्ञान वास्तवमें जीवका स्वरूप है; उस हेतुसे, जो अखण्ड अद्वैत स्वभावमें
लीन है, जो १निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्तिसुन्दरीका नाथ है और बाह्यमें जिसने
२कौतूहल व्यावृत्त किया है (अर्थात् बाह्य पदार्थों सम्बन्धी कुतूहलका जिसने अभाव किया
है ) ऐसे निज परमात्माको कोई आत्मा — भव्य जीव — जानता है । — ऐसा यह वास्तवमें
स्वभाववाद है । इससे विपरीत वितर्क ( – विचार ) वह वास्तवमें विभाववाद है, प्राथमिक
शिष्यका अभिप्राय है ।
णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा ।
अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।।१७०।।
ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा ।
आत्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्त म् ।।१७०।।
अत्र ज्ञानस्वरूपो जीव इति वितर्केणोक्त : ।
इह हि ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखंडाद्वैतस्वभावनिरतं
निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्ति सुंदरीनाथं बहिर्व्यावृत्तकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति
कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववादः । अस्य विपरीतो वितर्कः स खलु विभाववादः
प्राथमिकशिष्याभिप्रायः । कथमिति चेत्, पूर्वोक्त स्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा, स्वरूपाव-
१-निरतिशय = कोई दूसरा जिससे बढ़कर नहीं है ऐसी; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।
२ कौतूहल = उत्सुकता; आश्चर्य; कौतुक ।
है ज्ञान जीवस्वरूप, इससे जीव जाने जीवको ।
निजको न जाने ज्ञान तो वह आतमासे भिन्न हो ।।१७०।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-