वह (विपरीत वितर्क — प्राथमिक शिष्यका अभिप्राय ) किसप्रकार है ? (वह
इसप्रकार है : — ) ‘पूर्वोक्तस्वरूप (ज्ञानस्वरूप ) आत्माको आत्मा वास्तवमें जानता नहीं
है, स्वरूपमें अवस्थित रहता है ( – आत्मामें मात्र स्थित रहता है ) । जिसप्रकार
उष्णतास्वरूप अग्निके स्वरूपको (अर्थात् अग्निको ) क्या अग्नि जानती है ? (नहीं ही
जानती । ) उसीप्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्पके अभावसे यह आत्मा आत्मामें (मात्र )
स्थित रहता है ( – आत्माको जानता नहीं है ) ।’
(उपरोक्त वितर्कका उत्तर : — ) ‘हे प्राथमिक शिष्य ! अग्निकी भाँति क्या यह
आत्मा अचेतन है (कि जिससे वह अपनेको न जाने ) ? अधिक क्या कहा जाये ?
(संक्षेपमें, ) यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति,
❃
अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा, और इसलिये वह आत्मासे भिन्न सिद्ध होगा ! वह तो
(अर्थात् ज्ञान और आत्माकी सर्वथा भिन्नता तो ) वास्तवमें स्वभाववादियोंको संमत नहीं
है । (इसलिये निर्णय कर कि ज्ञान आत्माको जानता है । )’
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें १७४वें श्लोक
द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] आत्मा ज्ञानस्वभाव है; स्वभावकी प्राप्ति वह अच्युति
स्थितः संतिष्ठति । यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पा-
भावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति । हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः । किं
बहुना । तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव
आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति । तन्न खलु सम्मतं स्वभाववादिनामिति ।
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः —
(अनुष्टुभ्)
‘‘ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः ।
तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।।’’
❃ अर्थक्रियाकारी = प्रयोजनभूत क्रिया करनेवाला । (जिसप्रकार देवदत्तके बिना अकेली कुल्हाड़ी
अर्थक्रिया — काटनेकी क्रिया — नहीं करती, उसीप्रकार यदि ज्ञान आत्माको न जानता हो तो ज्ञानने भी
अर्थक्रिया — जाननेकी क्रिया — नहीं की; इसलिये जिसप्रकार अर्थक्रियाशून्य कुल्हाड़ी देवदत्तसे भिन्न है
उसीप्रकार अर्थक्रियाशून्य ज्ञान आत्मासे भिन्न होना चाहिये ! परन्तु वह तो स्पष्टरूपसे विरुद्ध है । इसलिये
ज्ञान आत्माको जानता ही है ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३४३