(अविनाशी दशा ) है; इसलिये अच्युतिको (अविनाशीपनेको, शाश्वत दशाको )
चाहनेवाले जीवको ज्ञानकी भावना भाना चाहिये ।’’
और (इस १७०वीं गाथाकी टीकाके कलशरूपसे टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञान तो बराबर शुद्धजीवका स्वरूप है; इसलिये (हमारा ) निज
आत्मा अभी (साधक दशामें ) एक (अपने ) आत्माको नियमसे (निश्चयसे ) जानता है ।
और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा (प्रत्यक्षरूपसे ) आत्माको न जाने
तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूपसे अवश्य भिन्न सिद्ध होगा ! २८६ ।
और इसीप्रकार (अन्यत्र गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] ज्ञान जीवसे अभिन्न है इसलिये वह आत्माको जानता है; यदि
ज्ञान आत्माको न जाने तो वह जीवसे भिन्न सिद्ध होगा !’’
तथा हि —
(मंदाक्रांता)
ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं
स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम् ।
तच्च ज्ञानं स्फु टितसहजावस्थयात्मानमारात्
नो जानाति स्फु टमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात् ।।२८६।।
तथा चोक्त म् —
‘‘णाणं अव्विदिरित्तं जीवादो तेण अप्पगं मुणइ ।
जदि अप्पगं ण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो ।।’’
अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो ।
तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि ।।१७१।।
संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आतमा है ज्ञान रे ।
अतएव निजपरके प्रकाशक ज्ञान - दर्शन मान रे ।।१७१।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-